2011-06-29 14:16:59

संत पेत्रुस और संत पौलुस के पर्व दिवस पर संत पेत्रुस बासिलिका में संत पापा का प्रवचन


श्रोताओ काथलिक कलीसिया ने 29 जून को प्रेरित संत पेत्रुस और संत पौलुस का समारोही पर्व मनाया। ये दोनों संत रोम शहर के संरक्षक संत भी हैं। इस दिन संत पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने अपनी पुरोहिताभिषेक की 60 वीं वर्षगाँठ भी मनाया। वे 29 जून 1951 को पुरोहित अभिषिक्त किये गये थे। उन्होंने संत पेत्रुस बासिलिका में आयोजित समारोही ख्रीस्तयाग के समय प्रवचन करते हुए कहा-
अतिप्रिय भाईयो और बहनो,
अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं कहूँगा। तुम मेरे मित्र हो। ( योहन 15-15)
मेरे पुरोहिताभिषेक दिवस के साठ साल बाद मैं मेरे अंदर येसु के इन शब्दों को फिर से सुनता हूँ जो हम नये पुरोहितों को पुरोहिताभिषेक समारोह के अंत में महाधर्माध्यक्ष कार्डिनल फुलहाबेर द्वारा कुछ नाजुक लेकिन दृढ़ आवाज में कहे गये थे। उस समय की पूजनधर्मविधि के अनुसार नये पुरोहितों के लिए कहे गये ये शब्द उन्हें पाप क्षमा करने का प्राधिकार देते थे। सेवक नहीं लेकिन मित्र। उस पल मैं गहराई से जाना कि ये शब्द मात्र औपचारकिता नहीं थे और न ही केवल पवित्र धर्मशास्त्र से कहे गये वाक्यांश। मैंने जाना उस पल कि स्वयं प्रभु मुझे निजी रूप से कह रहे थे। उन्होंने बपतिस्मा और दृढ़ीकरण संस्कार में हमें स्वयं अपने समीप लाया था, उन्होंने हमें ईश परिवार में शामिल कर लिया था लेकिन अभी जो हो रहा वह कुछ महान था। वे मुझे अपना मित्र कहते हैं। वे मेरा स्वागत करते हैं उस समूह में जिन्हें उन्होंने ऊपरी कमरे में कहा था, लोगों के उस समूह में जिन्हें उन्होंने विशेष रूप से जाना था और जो उन्हें विशेष रूप से जान सके थे। वे मुझे वह देते हैं वह विशेष विभाग जिसे केवल ईश्वर के पुत्र, वैध रूप से कह और कर सकते हैं- मैं तुम्हारे पाप क्षमा करता हूँ। वह मुझे चाहते हैं- अपने अधिकार से कि उनके नाम में कहने में समर्थ हो सकूँ, शब्द जो मात्र शब्द नहीं हैं लेकिन कृत्य हैं, व्यक्ति होने के गहनतम स्तर में कुछ परिवर्तन कर देता है। मैं जानता हूँ कि इन शब्दों के नीचे है हमारे लिए उनकी पीड़ा। मैं जानता हूँ कि क्षमा आती है एक कीमत पर- अपने दुःखभोग में वे हमारे पापों की गहनतम गहराई तक उतरे। वे हमारे अपराध के रात्रि तक गये और केवल इस तरह से ही इसका पूर्णपरिवर्तन किया जा सकता है और मुझे पाप क्षमा करने का प्राधिकार देकर वे मुझे मानव की खाई में, हम मानव के लिए उनकी पीड़ा की व्यापकता में देखने देते हैं और यह मुझे उनके असीम प्यार को महसूस करने में समर्थ बनाता है। वे मुझपर विश्वास करते हैं- अब तुम सेवक नहीं लेकिन मित्र। वे मुझे सौंपते हैं यूखरिस्त के समय कहे जानेवाले बलिपरिवर्तन के शब्द। वे मुझे सौंपते हैं उनके वचन की घोषणा करूँ, इसकी सटीक व्याख्या करू तथा इसे आज के लोगों के लिए लाऊँ। वे स्वयं को मुझे देते हैं। तुम अब सेवक नहीं लेकिन मित्र हो ये शब्द महान आंतरिक आनन्द लाते हैं लेकिन इसके साथ ही ये इतने आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले हैं कि एक व्यक्ति भयभीत या निरूत्साहित हो सकता है जैसा कि वह अपनी अशक्तता और उनकी नहीं समाप्त होनेवाली भलाई के अनुभवों के मध्य दशकों का समय व्यतीत करता है।
तुम अब सेवक नहीं लेकिन मित्र हो इस कथन में पौरोहितिक जीवन का सम्पूर्ण प्रोग्राम निहित है। मित्रता क्या है- सोचने और चाहने की सामुदायिकता है। प्रभु यही बात हमसे गहन रूप से कहते हैं- मैं अपनों को जानता हूँ और वे मुझे जानते हैं। गड़ेरिया अपनो को उनके नाम से पुकारता है। वे मुझे नाम से जानते हैं। मैं ब्रह्मांड की अनन्ता में नाम रहित कोई प्राणी नहीं हूँ। वे मुझे निजी रूप से जानते हैं। क्या मैं उन्हें जानता हूँ।
वह मित्रता जिसे वे मुझे देते हैं इसका अर्थ यही है कि मैं भी उन्हें बेहतर जानूँ- पवित्र धर्मशास्त्र में, संस्कारों में, प्रार्थना में, संतों की सामुदायिकता में, जो लोग मेरे पास आते हैं, उनके द्वारा भेजे गये हैं, मैं स्वयं प्रभु को अधिक से अधिक जानने का प्रयास करता हूँ। मित्रता मात्र किसी को जानना नहीं है लेकिन इससे अधिक इच्छाओं का मिलन है। इसका अर्थ है मेरी इच्छा उनकी इच्छा के अनुकूल अधिक से अधिक बने। क्योंकि उनकी इच्छा मेरे लिए पराया या कुछ बाह्य नहीं है, ऐसा कुछ नहीं जिसके लिए मैं स्वयं को दूँ या इंकार करूँ। नहीं मित्रता में, मेरी इच्छा उनकी इच्छा के साथ बढ़ती है और उनकी इच्छा मेरी इच्छा बनती है और इस तरह मैं वास्तव में मैं बनता हूँ। येसु अपना जीवन हमें देते हैं। प्रभु हमारी सहायता करें कि हम उन्हें अधिक से अधिक जानें और उनकी इच्छा के अनुरूप बनें। उनका मित्र बनने के लिए मदद करें।
मित्रता के बारे में येसु के शब्द को दाखलता के बारे में दिये गये प्रवचन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। प्रभु दाखलता की छवि के साथ शिष्यों को दिये गये मिशन से जोड़ते हैं- मैं तुम्हें चुना और नियुक्त किया ताकि तुम जाकर बहुत फल उत्पन्न करो , तुम्हारा फल बना रहे।
अपने मित्रों, शिष्यों के लिए पहला मिशन था कि वे बाहर निकलें, दूसरों के पास जायें। यहाँ हम संत मत्ती के सुसमाचार में प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को दिये गये शब्दों की प्रतिध्वनि सुनते हैं- जाओ और सब राष्ट्रों को अपना शिष्य बनाओ। प्रभु हमें चुनौती देते हैं कि अपनी दुनिया की सीमाओं से बाहर जायें और दूसरों तक सुसमाचार पहुँचायें ताकि यह सब में प्रवेश करे और संसार ईश्वर के राज्य के लिए खुला रहे। हमें स्मरण कराया जाता है कि यहाँ तक कि ईश्वर स्वयं से बाहर आये, उन्होंने अपनी महिमा किनारे कर दी ताकि हमें पा सकें, ताकि हमें अपना प्रकाश और अपना प्रेम दे सकें। हम उस ईश्वर का अनुसरण करना चाहते हैं, हम आत्मकेन्द्रित से परे जाना चाहते हैं ताकि वे हमारी दुनिया में प्रवेश कर सकें। हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं चुनौतियों और खुशी के लिए, हर्ष और विषाद के पलों के लिए। दोनों में हम उनके सतत प्रेम की उपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं जो हमें निरंतर संभालता और समर्थन देता है। प्रभु हमसे किस प्रकार के फल की आशा करते हैं- येसु कहते हैं फल उत्पन्न करो , वैसा फल जो बना रहता है। ईश्वर और पड़ोसी के प्रति प्रेम। इस दो पक्षीय प्रेम में निहीत है- धैर्य, विनम्रता, ईश्वर की इच्छा के अनुरूप हमारी इच्छा को बनाते जाना, हमारे मित्र येसु की इच्छा पूरी करना। इसमें हमारी सत्यनिष्ठा है यह ख्रीस्त और कलीसिया के प्रति निष्ठा है जिसमें पीड़ा भी शामिल है। इसका अर्थ है- आत्म त्याग आत्म बलिदान। यही वह मार्ग है जहाँ सच्चा आनन्द बढ़ता है।
संत पापा ने रोम के संरक्षक संतो के पर्व दिवस पर कुस्तुंतुनिया प्राधिधर्मपीठ के आर्थोडोक्स प्राधिधर्माध्यक्ष बारथोलोमियो प्रथम द्वारा भेजे गये प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों, सब कार्डिनलों, धर्माध्यक्षों , राजदूतों, प्रशासनिक अधिकारियों और विश्वासियों का अभिवादन करते हुए महाधर्माध्यक्षों को अम्बिरिकाएं दिये जाने के अर्थ और महत्व पर प्रकाश डालने के बाद अपने प्रवचन के अंत में कहा-
प्रिय मित्रो, पौरोहितिक प्रेरिताई के साठ वर्ष पर शायद मैंने कुछ लम्बे समय तक कहा लेकिन मैंने महसूस किया कि इस पल मैं पीछे मुड़कर उन सब चीजों को देखूँ जिन्होंने मुझपर इन छह दशकों में अपनी छाप छोड़ी है। मैंने चाहा कि आप सबको, सब पुरोहितों धर्माध्यक्षों, कलीसिया के विश्वासियों को सम्बोधित करूँ- आशा और उत्साह के शब्द, शब्द जो परिपक्व हो गया है बहुत अधिक अनुभव पाकर कि प्रभु कितने भले हैं। सबसे ऊपर, यह समय धन्यवाद देने का है ईश्वर को उस मित्रता के लिए धन्यवाद जिसे उन्होंने मुझे दिया है और हम सब को देना चाहते हैं। उन सबलोगों को धन्यवाद जिन्होंने मुझे प्रशिक्षित किया और मेरा साथ दिया। और इन सब में वह प्रार्थना भी शामिल है कि प्रभु एक दिन अपनी भलाई में हमारा स्वागत करेंगे और उनके आनन्द पर मनन चिंतन करने के लिए निमंत्रण देंगे। आमेन।








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