2011-04-18 18:30:27

खजूर रविवार के अवसर पर समारोही ख्रीस्तयाग के समय दिया गया संत पापा का प्रवचन


ईसाईयों ने रविवार 17 अप्रैल को खजूर रविवार की पूजन धर्मविधि के साथ ही येरूसालेम में प्रभु येसु के प्रवेश का स्मरण किया और पुण्य सप्ताह में प्रवेश किया। इसी दिन काथलिक कलीसिया ने धर्मप्रांतीय स्तर पर 26 वाँ विश्व युवा दिवस भी मनाया। रोम स्थित संत पेत्रुस बासिलिका के प्रांगण में लगभग 50 हजार विश्वासियों के लिए संत पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने खजूर रविवार के समारोही ख्रीस्तयाग की अध्यक्षता की तथा प्रवचन देते हुए कहा-

अतिप्रिय भाईयो और बहनो प्रिय युवाओ,

प्रतिवर्ष यह बहुत ही मार्मिक अनुभव है जब खजूर रविवार के दिन हम येसु के साथ पर्वत की ओर, मंदिर की ओर जाते हैं। उनके साथ ऊपर, आगे की ओर बढ़ते हैं। इस दिन, सम्पूर्ण विश्व में तथा सदियों से युवा और हर आयु वर्ग के सब लोग जयजयकार करते हुए घोषणा करते हैं - दाऊद के पुत्र की होसन्ना, धन्य हैं वे जो प्रभु के नाम पर आते हैं।

लेकिन हम वास्तव में क्या कर रहे हैं जब हम इस शोभायात्रा में भीड़ के अंग बनकर शामिल होते हैं जो येसु के साथ येरूसालेम में प्रवेश करती है तथा इस्राएल के राजा के रूप में उनका जयकार करती है ? क्या यह रीति रिवाज, अनूठा दस्तूर से बढ़कर है ? क्या इसका कोई संबंध हमारे जीवन और हमारे विश्व की वास्तविकता से है ? इसका जवाब देने के लिए, हमें सबसे पहले यह स्पष्ट होना होगा कि येसु स्वयं क्या करना चाहते थे और उन्होंने क्या किया। पवित्र भूमि के सबसे उत्तरी भाग में स्थित कैसरिया फिल्लिपी में पेत्रुस की विश्वास संबंधी स्वीकृति के बाद येसु पास्का पर्व समारोह के लिए येरूसालेम की ओर तीर्थयात्री के रूप में चल पड़े। वे पवित्र शहर में मंदिर की ओर यात्रा कर रहे थे, उस स्थान की ओर जहाँ इस्राएल के लिए ईश्वर की निकटता ईशप्रजा के लिए विशिष्ट रूप से सुनिश्चित थी। वे पास्का पर्व मनाने के लिए जा रहे थे जो मिस्र से इस्राएल की मुक्ति की स्मृति तथा निश्चित मुक्ति के लिए आशा का चिह्न था। वे यह जानते थे कि उनके लिए क्या प्रतीक्षा कर रहा था एक नया पारगमन तथा वे स्वयं ही बलिदान के लिए चढाये जानेवाले मेमने का स्थान लेंगे और क्रूस पर स्वयं को अर्पित कर देंगे। वे जानते थे कि रोटी और अंगूरी के रहस्यमय उपहार में स्वयं को हमेशा के लिए अपनों को दे देंगे तथा उनके लिए मुक्ति के एक नये द्वार को खोल देंगे, जीवंत ईश्वर का साहचर्य पाने के लिए। वे क्रूस की ऊँचाईयों तक, आत्मदान करनेवाले प्यार के क्षण तक अपना मार्ग बना रहे थे। उनकी तीर्थयात्रा का अंतिम लक्ष्य था ईश्वर की ऊँचाई, उस ऊँचाई तक हर मानव को उठाना चाहते थे।

आज हमारी शोभायात्रा का अर्थ है जो कुछ गहरा है उसकी छवि या प्रतीक बनना, इस तथ्य को प्रतिबिम्बित करना कि येसु के साथ हम तीर्थयात्रा में बढ़ रहे हैं उस उच्च पथ में जो जीवित ईश्वर की ओर ले जाता है। यही वह चढ़ाई है जो महत्वपूर्ण है। यही वह यात्रा है जिसे करने के लिए येसु हमें आमंत्रित करते हैं। लेकिन इस चढाई में हम अपनी गति कैसे बनाये रख सकें ? क्या यह हमारी क्षमता से परे नहीं है ? निश्चत तौर पर यह हमारी अपनी संभावनाओं से परे है। शुरू से ही स्त्री और पुरूष भरे हैं तथा यह आज भी हमेशा की रह सच है- स इच्छा के साथ कि ईश्वर के समान बनना, अपनी ताकत के बल पर ईश्वर की ऊँचाई को हासिल करना। मानव द्वारा किये गये हर प्रकार के आविष्कार अंततः डैने प्राप्त करने का प्रयास हैं कि होने की ऊँचाई तक उठ सकें और स्वतंत्र हो, पूरी तरह आजाद जैसा ईश्वर स्वतंत्र हैं। मानवजाति बहुत चीजों को पूरा करने में समर्थ हो सकी है। हम उड़ सकते हैं, पृथ्वी के सुदूर अंतिम छोर से भी हम एक दूसरे को देख, सुन और बात कर सकते हैं । और फिर भी गुरूत्व की ताकत हमें नीचे खींचती है वह ताकतवर है। हमारी क्षमताओं में वृद्धि होने के साथ ही न केवल भलाई में वृद्धि हुई है, बुराई के लिए हमारी संभावनाओं में वृद्धि हुई है तथा इतिहास पर तबाही लानेवाले तूफान के समान प्रतीत होती है। हमारी सीमाएँ भी रही हैं। हम सोच सकते हैं उन आपदाओं, विनाशकारी घटनाओं के बारे में जिन्होंने हाल के महीनों में मानवता के लिए बहुत पीड़ा उत्पन्न किया है। कलीसिया के धर्माचार्यों ने माना कि मानव प्राणी दो गुरूत्वकर्षण ताकतवाली क्षेत्रों के मध्य एक दूसरे को छूनेवाले बिन्दु पर खड़ा है। पहला, गुरूत्व की ताकत जो हमें नीचे खींचती है- स्वार्थ, झूठ और बुराई की ओर, यह गुरूत्व बल हमें कम करती तथा ईश्वर की ऊँचाई से दूर करती है। दूसरी ओर ईश्वर के प्रेम की गुरूत्वकर्षण वाली ताकत है –यह तथ्य कि हम ईश्वर के द्वारा प्रेम किये गये हैं और प्रेम में प्रत्युत्तर देते हैं ऊपर की ओर खींचता है। मानव स्वयं को इन दो गुरूत्वकर्षणवाली शक्तियों के बीच में पाता है। सब कुछ निर्भर करता है बुराई की गुरूत्वकर्षणवाली ताकत के क्षेत्र से बचकर निकलने और स्वतंत्र होने में कि ईश्वर के गुरूत्वकर्षणवाली ताकत के द्वारा पूरी तरह आकर्षित हो जायें जो हमें सच्चा बनाती, ऊपर उठाती और सच्ची स्वतंत्रता देती है।

ईशवचन की धर्मविधि का अनुसरम करते हुए यूखरिस्तीय प्रार्थना के शुरू में जहाँ प्रभु हमारे बीच में आते हैं कलीसिया हमें आमंत्रित करती है कि हम अपने दिल को उठायें सुरसुम कोरडा। बाइबिल की भाषा में तथा पूर्वजों की सोच के अनुसार दिल ही मानव का केन्द्र है जहाँ समझदारी, इच्छा, भावनाएँ, शरीर और आत्मा सब एक साथ आते हैं। वह केन्द्र जहाँ आत्मा शरीर बनाता है और शरीर आत्मा बनती है जहाँ इच्छा, भावनाएँ और समझदारी ईश्वर के प्रेम और ज्ञान में एक बन जाते हैं। यह दिल है जिसे ऊपर उठाया जाना है। लेकिन दुहरायें कि हम अपने दिल को ईश्वर की ऊँचाई तक उठाने के लिए बहुत कमजोर हैं हम ऐसा नहीं कर सकते हैं।
सोचने का यह गर्व कि हम अपने बल पर स्वयं कर सकते हैं हमें नीचे की ओर खींचती है तथा ईश्वर से अपरिचित बनाती है। ईश्वर स्वयं हमें खींचकर ऊपर लायें और यही वह है जिसे ख्रीस्त ने क्रूस पर करना शुरू किया। वे मानव अस्तित्व की गहराई तक नीचे आये ताकि हमें स्वयं तक, जीवित ईश्वर तक ऊपर ले जा सकें। उन्होंने स्वयं को विनम्र किया जैसा कि आज का दूसरा पाठ कहता है। केवल ईसी तरीक से हमारा घमंड दूर हो सकता हैष ईश्वर की विनम्रता उनके प्रेम का सबसे चरम रूप हो और यह विनम्र प्रेम हमें ऊपर की ओर खींचता है।

मानवजाति हमेशा इस सवाल में लगी रही है कि मानव उस ऊँचाई को कैसे प्राप्त कर ले, अपने आप में पूर्ण बने तथा पूरी तरह ईश्वर के समान बन सके। तीसरी और चौथी सदी के प्लाटोनिक दर्शनशास्त्रियों ने बहुत ही गहराई से इस पर वाद विवाद किया। उनके लिए केन्द्रीय बिन्दु था शुद्धता के साधनों को पाना जो को स्वतंत्र कर सके उस बोझ से जो उसे नीचे दबा रही है तथा उसे समर्थ बनाये कि वह अपने यथार्थ होने की ऊँचाई, दिव्यता की ऊँचाईयों तक ऊपर उठे। संत अगुस्टीन ने सही रास्ते की अपनी खोज में बहुत समय तक उन दार्शनिक विचारधाराओं में मार्गदर्शन पाना चाहा।

लेकिन अंत में उसने स्वीकार किया कि उनके जवाब अपर्याप्त हैं उनके तरीके वास्तव में ईश्वर की ओर नहीं ले जायेंगे। उन दर्शनशास्त्रियों से उनसे कहा- पहचानो, मानव की शक्ति और उसके ये सब शुद्धता के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं कि मानव को सच में दिव्य की ऊँचाईयों तक, अपनी ऊंचाईयों तक लायें। और उसने यह भी जोड़ा कि वह अपना और मानव अस्तित्व को हतोत्साह कर देता यदि उसने नहीं पा लिया होता उसे जो पूरा करता है जिसे हम पूरा नहीं कर सकते। वह, जो हमें हमारे बेचारापन के बावजूद ईश्वर की ऊँचाईयों तक उठाते हैं, येसु ख्रीस्त जो ईश्वर की ओर से हम तक नीचे आये, अपने क्रूसित प्रेम में हाथ पकड़कर हमें लेते हैं तथा ऊँचाई तक उठाते हैं। हम ऊँचाई के लिए ईश्वर के साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं। हम शुद्ध ह्दय औरसाफ हाथ के लिए प्रयास कर रहे हैं हम सत्य की खोज कर रहे हैं हम ईश्वर के मुखमंडल की खोज कर रहे हैं। हम ईश्वर को दिखायें कि हम धार्मिक होना चाहते हैं और उनसे कहें कि हमें ऊपर की ओर खींचें, हमें शुद्ध करें, शोभायात्रा के समय गाये गये भजन के शब्द हमारे लिए भी सच सिद्ध हों, हम उस पीढ़ी के अंग बनें जो ईश्वर की खोज में लगी रहती है- याकूब के ईश्वर के दर्शनों के लिए तरसते हैं। आमेन

संत पापा ने समारोही ख्रीस्तयाग के अंत में विभिन्न भाषाओ में विश्वासियों को सम्बोधित करने के बाद देवदूत संदेश प्रार्थना का पाठ किया और सबको अपना प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया।








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