संस्कृति के क्षेत्र में ईसाई धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण
स्त्रासबोर्ग, 16 अप्रैल, 2011 (ज़ेनित) अंतरधार्मिक वार्ता के लिये बनी परमधर्मपीठीय
समिति के अध्यक्ष कार्डिनल जाँन लुईस तौरान ने कहा है कि अंतरधार्मिक वार्ता के क्षेत्र
में ईसाई धर्म को संस्कृति के क्षेत्र में बड़ी भूमिका अदा करनी की आवश्यकता है।
कार्डिनल
तौराँन ने उक्त बातें उस समय कीं जब उन्होंने मंगलवार 12 अप्रैल को फ्रांस के स्त्राबोर्ग
में पार्लियामेन्टरी असेम्बली ऑफ द कौंसिल ऑफ यूरोप के बसंत सत्र में संबोधित किया।
उन्होंने
कहा कि " काथलिक कलीसिया और संस्कृति एक सहयात्री है।" ईसाई धर्मानुयायियों अपने धर्म
का पालन करते हुए विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग कर विज्ञान और कला को सम्पन्न करते रहें
हैं जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मानव समुदाय ने जीवन संबंधी कई जटिल समस्याओं का जवाब पाया
है।
उन्होंने कहा " इस नयी सहस्राब्दि में मानव को मूल्यों के बारे बताना एक चुनौती
है ऐसे समय में संस्कृति के प्रति ईसाई धर्मानुयायियों की ज़िम्मेदारी अधिक स्पष्ट हो
गयी है।"
उन्होंने स्पष्ट किया किया " ईसाई धर्म का दायित्त्व यह नहीं है कि
लोगों को क्या करना है, पर यह बताना कि मानव नैतिक और भौतिक वस्तुओं का मालिक है और
उनका उपयोग विश्व के सब लोगों के लिये होना चाहिये।
इस लिये इस बात की ज़रूरत
है कि लोगों को मूल्यों की जानकारी दें और सुरक्षित रखें ताकि यह आने वाली पीढ़ी के लिये
उपयोगी हो।"
" मानव को यह समझने की आवश्यकता है कि वह प्रकाशश्रोत से वंचित न
कर दिया जाये।"
उन्होंने कहा कि " ऐसे समय में जब व्यक्ति गर्भपात, इच्छा मृत्यु
यौन के साथ छेड़-छाड़ करने में लगा है चर्च को चाहिये कि वह उन्हें मानव और मानवतावाद
कि दिशा दिखाये। "
उन्होंने कहा कि " युवाओं को चाहिये कि वे अंतरधार्मिक और
अंतरसांस्कृति वार्ता के महत्त्व को समझें। वे दूसरों को अपने धर्म के बारे में जानकारी
दें और दूसरों के धर्म की भी जानकारी रखें।"
कार्डिनल ने कहा कि ऐसा करना सत्य
के बारे एक प्रकार की छूट नहीं है पर यह तो दूसरों के बारे में जानकारी है, उन्हें सुनना
है और इस बात की पहचान करनी कि आपसी समानतायें क्या हैं।
उन्होंने कहा कि "
एक विश्वासी के रूप में हमें एक साथ कार्य करने के लिये कई तरह के अवसर दिये जा रहें
हैं जिनमें प्रमुख हैं अन्तरकलीसियाई वार्ता अंतरधार्मिक वार्ता और उनके साथ ईश्वर की
खोज करते हैं।"
कार्डिनल ने कहा कि " ऐसा हो कि धर्म के नाम पर भेदभाव और हिंसा
को कभी भी न्योयोचित्त न ठहराया जाये। "