कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन 12अपैल, 2011 विभिन्न धर्मों एवं सांस्कृतिक परंपराओं
के प्रतिनिधियों को संत पापा
जोन पौल द्वितीय का प्रवचन (रविवार 2 फरवरी, 1986)
अति सम्माननीय 1 मई सन् 2011 को रोम में आयोजित एक भव्य समारोह धन्य घोषित किये जायेंगे।
भारतवासियों के लिये तो यह साल दोहरी खुशी लेकर आया है क्योंकि आज से 25 साल पहले सन्
1986 ईस्वी में संत पापा जोन पौल द्वितीय भारत की पावन भूमि पर अपनी ऐतिहासिक प्रेरितिक
यात्रा की थी। उनकी धन्य घोषणा समारोह के अवसर पर रोम के संत पेत्रुस महागिरजाघर
प्रांगण में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों की तैयारियाँ अपनी चरमसीमा पर है। आशा की
जा रही है कि लाखों लोग इस समारोह का साक्ष्य देने के लिये उपस्थित होंगे। प्रतिकूल
परिस्थितियों के बावजूद 20वीं सदी के अति शक्तिशाली एवं प्रभावकारी नेताओं के रूप में
विख्य़ात कारोल जोजेफ वोयतिवा से संत पापा जोन पौल द्वितीय बने, प्रथम पोलिस पोप ने काथलिक
कलीसिया के 264वें महाधर्मगुरु के रूप में 26 सालों तक के ईसाइयों का नेतृत्व एवं मार्गदर्शन
किया तथा विश्व समुदाय को अपनी अद्वितीय सेवायें प्रदान कीं। कलीसियाई दस्तावेज़
बतलाते हैं संत पापा पीयुस नवें के बाद संत पापा जोन पौल द्वितीय ही ऐसे संत पापा रहे
जिन्होंने कलीसिया की सेवा लम्बे समय तक की। यह भी स्मरण रहे कि सन् 1520 ईस्वी में डच
निवासी संत पापा अद्रियन छठवें के बाद करोल जोजेफ वोयतिवा को ग़ैरइतालवी संत पापा बनने
का गौरव प्राप्त हुआ। विश्वास किया जाता है कि उन्होंने अपने देश पोलैंड में साम्यवाद
का अंत कराने में विशेष भूमिका निभायीं और बाद में इसकी जो लहर फैली उससे पूरे विश्व
में ही दूरगामी परिवर्तन आये।एक के बाद एक पूरे यूरोप ने ही साम्यवाद को अलविदा कहा।
संत पापा जोन पौल के प्रयासों से ही एक ओर काथलिक कलीसिया का यहूदियों के साथ संबंध
बेहतर हुआ तो दूसरी ओर पूर्वी ऑर्थोडोक्स कलीसिया और अंगलिकन कलीसियाओं के साथ भी आपसी
रिश्ते सौहार्दपूर्ण हुए। वैसे संत पापा जोन पौल द्वितीय को कई लोगों ने उनके गर्भनिरोध
का विरोध, महिलाओं के अभिषेक के प्रति कड़े विचार, वाटिकन द्वितीय महासभा का जोरदार समर्थन
और धर्मविधि में सुधार के लिये आलोचनायें कीं हैं, पर अधिकतकर लोगों ने उनकी दृढ़ता
और काथलिक तथा मानवीय मूल्यों के प्रति उनके विचारों की स्थिरता की तारीफ़ में खुल कर
की है। संत पापा जोन पौल द्वितीय विश्व के उन प्रभावशाली नेताओं में से एक है जो विभिन्न
भाषाओं के ज्ञाता थे। आप पोलिस के अलावा इतालवी, इंगलिश, फ्रेंच, जर्मनी, स्पैनिश पोर्तुगीज
उक्रेनियन रूसी क्रोएशियन एसप्रेरान्तो प्राचीन ग्रीक और लैटिन के ज्ञाता थे। आपने
104 प्रेरितिक यात्रायें की और 129 राष्ट्रों के दौरे किये 738 राष्ट्राध्यक्षों से मिले
और की 246 प्रधानमंत्रियों से भेंट की और करीब 17 करोड़ 60 लाख लोगों ने उसके आम दर्शन
समारोह में हिस्सा लिया। सम्माननीय संत पापा जोन पौल द्वितीय ने अपने कार्यकाल में 1338
लोगों धन्य और 482 लोगों को संत घोषित किया। उनके संदेशों से समग्र विश्व लाभान्वित
हुआ है। एक ओर युवाओं में नयी शक्ति जागी, परिवारिक मूल्य मजबूत हुए शांति तो दूसरी ओर
अन्तरधार्मिक वार्ता के प्रयासों को बल प्राप्त हुआ। हमारा विश्वास है कि उनके जीवन से
हमें भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और अर्थपूर्ण जीवन की जीने की प्रेरणायें मिलेगी। संत
पापा के वाणी आज भी उतनी ही अर्थपूर्ण, तेज और प्रासंगिक है। उनके भारत आगमन की 25वीँ
वर्षगाँठ और उनके धन्य घोषणा वर्ष के अति पावन अवसर पर हम इन दिनों संत पापा के संदेशों
को आप तक लगातार पहुँचाते रहेंगे। कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले सप्ताह
हमने संत पापा के उस संदेश के मुख्यांश को जिसे उन्होंने अपनी भारत यात्रा के दौरान दिल्ली
- आगरा धर्मप्रांत के धर्माध्यक्षों को दिया था। आज हम जानकारी प्राप्त करेंगे संत पापा
के संदेश के उस मुख्यांश को जिसे उन्होंने दिल्ली में धार्मिक नेताओं को दिया। मेरे
प्रिय दोस्तो आज मैं एक तीर्थयात्री के रूप में भारत आया हूँ। आज मैं विभिन्न धार्मिक
और सांस्कृतिक समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ मानव जीवन की वास्तविकता का अनुभव कर रहा
हूँ। मानव जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले आप सभी को मैं अपनी मित्रता,
सम्मान और भ्रातृप्रेम का उपहार देता हूँ। उन सबों के प्रति मैं आभारी हूँ जिनके अथक
प्रयास से यह मुलाक़ात संभव हो पायी है। मेरा विश्वास है कि भारत में जो विभिन्नतायें
हैं वे मानव के आध्यात्मिक पक्ष पर चिन्तन करने के लिये हमें आमंत्रित करते हैं। भारतवासियों
के लिये यह आध्यात्मिक आकांक्षा जीवन के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसी से हम भारतवासियों
के मूल्यों, आशाओं और मानव मर्यादा को समझ सकते हैं। मेरा विश्वास है कि इसी आध्यात्मिक
आकांक्षा से व्यक्ति अपने बारे में एक नया मनोभाव बना सकता है। यह मनोभाव नया है
पर इसका आधार सदियों तक बरकरार रखे गये नैतिक मूल्यों में निहित है। इसमें भ्रातृप्रेम,
निःस्वार्थ सेवा, क्षमा, बलिदान, त्याग, तपस्या, पश्चात्ताप धैर्य और सहिष्णुता शामिल
है। समय के साथ मानव यह अनुभव करता है कि इन मूल्यों की ओर उसे बार-बार लौटने की
आवश्यकता है। इन मूल्यों के केन्द्र में है - मानव और लोगों को चाहिये कि वह इसकी ओर
लौटे। मानव ईश्वर का पुत्र है जिसमें ह्रदय और आत्मा है। ईश्वर मानव को बुलाता है ताकि
वह अनन्त काल तक जीवित रहे। मैं आज दृढ़ता के साथ यह बताना चाहता हूँ कि मानव के
अस्तित्व को इसकी पूर्ण सत्यता में लिया जाना चाहिये। मानव और इसके अस्तित्व को पूर्ण
रूप से समझने की दिशा में भारतवासी कई तरह से दुनिया की मदद कर सकता है। भारतीय दर्शन
ने मानव के आध्यात्मिक दर्शन को पर बल दिया है। इसके अनुसार मानव एक तीर्थयात्री है जो
अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा है ताकि एक दिन वह ईश्वर के दर्शन कर सके। महात्मा
गाँधी ने कहा था कि " वे उस आत्मज्ञान को पाना चाहते हैं जिसमें वे ईश्वर को आमने-सामने
देख सकें। मानव की इसी दृढ़ इच्छा से प्रेरित होकर व्यक्ति अपने जीवन की समस्याओं का
समाधान कर सकता है ताकि मानव का सम्पूर्ण विकास हो सके। इसी से मानव को धैर्यवान बनने
की शक्ति प्राप्त होती है और इसी आध्यात्मिक शक्ति से मानव मानवता की भलाई की बात सोच
सकता है और प्रत्येक व्यक्ति को इस दुनिया में उचित स्थान प्राप्त हो सकता है।" आज
मैं आपको बताना चाहता हूँ कि दुनिया की बुराइयों और चुनौतियों के बीच सत्य की शक्ति ही
बनी रहेगी। सत्य की शक्ति - ईश्वर और मानव की सत्यता की शक्ति है। भारत देश का आदर्श
वाक्य बिल्कुल सही है। इसमें कहा गया है ‘सत्यमेव जयते’ अर्थात् ‘सत्य की जीत होती है’।
अगर हम मानव की पूर्ण सत्यता के बारे में बाते करें तो हम पायेंगे कि इसे प्राप्त
करने के लिये सम्पूर्ण मानव के विकास की आवश्यकता है। संत पौल षष्टम् कहा करते थे कि
" मानव का पूर्ण विकास ‘शांति का एक नया नाम है’।" आज इस बात की ज़रूरत है कि मानव
उन बातों का पता लगाये जो मानव के पूर्ण विकास के मार्ग में बाधा बनता है, उसे दुःख देता
है और मानव अस्मिता का विनाश करता है। ऐसा करने के बाद एक-दूसरे के प्रति खुले दिल से
अपने और अपने पड़ोसी के आध्यात्मिक स्वरूप को पहचानें। वाटिकन द्वितीय महासभा ने
" नये मानववाद " पर बल दिया था जिसमें स्वार्थ और अमानवीयता के लिये कोई स्थान नहीं
है। नयी दुनिया का निर्माण तब ही संभव हो पायेगा जब मानव दूसरे मानव के साथ अपना संबंध
बनाये जिसके केन्द्र में हो - मानव का ह्रदय। यदि मानव अपना संबंध दूसरे मानव के
ह्रदय से बनाये तो दूसरा व्यक्ति उसका भाई या बहन बन जाता है जैसा कि येसु ने लोगों को
‘हे हमारे पिता’ प्रार्थना सिखाते समय कहा था। अर्थात् ईश्वर हमारे पिता हैं और दुनिया
के लोग उसकी संतान हैं। जब हम मानव की सेवा करते हैं तो हम उसके सृष्टिकर्त्ता पिता ईश्वर
की सेवा करते हैं। प्रत्येक धर्म चाहता है वह ईश्वर के राज्य का प्रचार करे ताकि मानव
एक दिन अपने लक्ष्य तक पहुँच सके। आज हम यहाँ हिन्दु, मुसलिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध,
जैन, पारसी और अन्य एक साथ जमा हुए हैं ताकि इस बात को पता लगा सकें कि मानव का व्यक्तिगत
और सामाजिक कल्याण कैसे संभव होगा और मानव कैसे अपनी पूर्ण मर्यादा को प्राप्त कर पायेगा
जो हर व्यक्ति की हार्दिक इच्छा है। आज ज़रूरत है कि हम अन्तरधार्मिक सहयोग से भूख
गरीबी अज्ञानता अत्याचार और हर प्रकार के भेदभाव और अन्याय को दूर करें और शांति और न्याय
के लिये कार्य करें। आज ज़रूरत है इस बात की कि हम उस मानवतावाद के लिये कार्य करें
जो भ्रातृप्रेम और सहयोग से संभव हो सकता है। व्यक्ति को चाहिये कि वह मानव को बेहत्तर
बनाने के लिये कार्य करे मानव की प्रगति के लिये कार्य करे ताकि मानव का संपूर्ण विकास
संभव हो सके। आज हमने जानकारी प्राप्त की संत पापा जोन पौल द्वितीय के संदेश के उस
मुख्यांश को जिसे उन्होंने दिल्ली में धार्मिक नेताओं को दिया। अगले सप्ताह हम जानकारी
प्राप्त करेंगे राँची में आयोजित यूखरिस्तीय बलिदान में दिये गये प्रवचन के बारे में।