कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व
साक्ष्य भाग - 26 25 जनवरी, 2011 सिनॉद ऑफ बिशप्स – ईसाई-इस्लाम वार्ता
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हम
यह दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन
एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा है। संत
पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी
थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिड्ल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन
इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया इस प्रकार
की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है। परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी
क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन,
साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल,
गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व
के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों
में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन्
1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद
संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों
की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी
विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों
के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था। पिछले अनुभव बताते हैं कि
महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं
उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं
पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय
गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र
की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है। एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण
महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में
उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें। पाठको, कलीसियाई
दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले सप्ताह हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’
नामक दस्तावेज़ में वर्णित " आधुनिकता " की अस्पष्टता और अंतरधार्मिक वार्ता के बारे
में आज हम सुनेंगे ईसाई-इस्लाम वार्ता के बारे में। 107. श्रोताओ, हम आपको बता
दें कि ईसाइयों ने सदा ही विभिन्न देशों में शिक्षा और संस्कृति के विकास में अपना योगदान
दिया है। इससे समाज को बहुत लाभ हुए हैं। इतना ही नहीं, ईसाइयों ने सांस्कृतिक, आर्थिक
और राजनैतिक क्षेत्र में भी कार्य किये हैं विशेषकर के अरब देशों के नवीनीकरण में तो
मिशनरियों का योगदान अद्वितीय रहा है। 108. अगर हम मध्यपूर्वी राष्ट्रों में राजनीतिक
सहभागिता के बारे में बातें करें तो पायेंगे कि यह अब ईसाइयों के लिये सीमित-सा हो गया
है क्योंकि उनकी संख्या लगातार कम होती चली गयी है। फिर भी ऐसा नहीं है कि चर्च के कार्यों
और क्रियाकलापों को लोगों ने नज़रअंदाज़ कर दिया है। ईसाई जहाँ भी जाते हैं अपने कलीसियाई
और सामाजिक संस्थानों के द्वारा समाज विभिन्न सेवायें प्रदान की हैं औऱ उनके कार्यों
की सराहना की जाती रही हैं। आज ख्रीस्तीयों विशेषकरके लोकधर्मियों से कलीसिया यह आशा
करती है कि वे अपने को स्थानीय लोगों और समाज के साथ मिल कर काम करें। 109.श्रोताओ,
हम आपको यह भी बता दें कि तुर्की को छोड़ अन्य सभी मुस्लिम बहुल राष्ट्र धर्मनिर्पेक्ष
राज्य नहीं है। ठीक इसके विपरीत प्रायः सभी मुसलिम राष्ट्रों में इस्लाम ही राष्ट्र धर्म
है और शरिया से प्रेरित कानून ही शासन व्यवस्था का मुख्य श्रोत है। किन्हीं-किन्ही बातों
में जैसे परिवार और संपति के हस्तांतरण जैसे मामलों में ईसाइयों के लिये कुछ विशेष प्रावधान
हैं औऱ कलीसियाई अधिकरणों और उनके नियमों को मान्यता दी गयी है। अगर हम दूसरी ओर ध्यान
दें तो हम पाते हैं कि विश्व का प्रत्येक राष्ट्र संविधान में इस बात का दावा करता है
कि उसके सभी नागरिक समान हैं। पर मुसलिम देशों के अनुभव बताते हैं कि सरकारी और प्राइवेट
विद्यालयों में धर्मशिक्षा तो अनिवार्य है पर यह अधिकार ईसाइयों को नहीं दिया गया है।
110. कई मुसलिम देशों में तो शरिया को न केवल निजी क्षेत्रों में पर सार्वजनिक क्षेत्रों
में भी लागू किया गया है । ऐसा करने से ग़ैरमुसलमानों को उनके मानवाधिकारों से वचित किया
जा रहा है। इतना ही नहीं मुसलमान राष्ट्र दूसरों के धार्मिक और अंतःकरण के अधिकारों
को भी मान्यता नहीं देते हैं। वे इस बात की मान्यता तो देते हैं कि अन्य धर्मावलंबियों
को पूजा-आराधना की स्वतंत्रता हो पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं है कि अन्य धर्मावलंबी अपने
धर्म के बारे में दूसरों को बतायें। इस्लाम धर्म को छोड़कर कोई दूसरा धर्म स्वीकार करने
की तो बात तो सोचा नहीं जा सकता है। 111. इतना सुनने के बाद आइये हम इस बात को जाने
कि ईसाइयों का इस्लाम समुदाय के लिये क्या योगदान किया है। सच पूछा जाये तो ईसाइयों ने
सुसमाचार के मूल्यों से प्रेरित होकर सदा ही समाज के लिये अपना योगदान दिया है। साधारणतः
ईसाइयों का प्रयास यही होता है कि सुसमाचर के मूल्यों और येसु की शिक्षा का साक्ष्य दें।
इसीलिये आज इस बात की ज़रूरत है कि काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा ईसाइयों और नागिरकों
दोनों का निर्माण करे ताकि वे विभिन्न विभाग में कार्य कर सकें। पाठको, यहाँ इस बात को
भी बताया जा सकता है कि बिना सुसमाचार के मूल्यों के राजनीतिक बातों में ईसाइयों को सपर्मण
अपेक्षित फल नहीं ला सकता है। बिना मूल्यों के राजनीति तो समाज के लिये हानिकारक हो सकती
है। कई बार विशेषकरके मानवाधिकार मुसलमानों के तौर तरीकों से मिलते-जुलते हैं ऐसे अवसरों
का सदुपयोग किया जाना चाहिये और उनके साथ मिलकर का प्रचार मिलकर आगे बढ़ाने का प्रयास
करना चाहिये। 112. हम आपको यह भी बता दें कि मध्यपूर्व में जो तनावपूर्ण वातावरण
है उसके लिये इस्राएल और फिलीस्तीन के बीच कटुतापूर्ण संबंध ही ज़िम्मेदार है। ऐसे समय
में ईसाइयों का यह विशेष दायित्व है कि वे शांति और न्याय का वातावरण बनाये रखने में
अपना योगदान दें। इसके लिये उन्हें चाहिये कि वे हिंसा का सदा विरोध करें विशेषकर ऐसे
समय में जब वे वार्ता के द्वारा समस्याओं का समाधान कर सकते हों। 113. हम आपको यह
भी बताना चाहेंगे कि एक ओर तो प्रताड़ितों को न्याय चाहिये पर दूसरी ओर यह भी ज़रूरी
है कि लोग एक-दूसरे को क्षमा देते हुए मेल-मिलाप भी करना सीखें। ईसाइयों में यह पूरा
विश्वास हो कि पवित्र आत्मा से क्षमा की कृपा माँगने से क्षमादान की कृपा अवश्य ही प्रदान
करेंगे। पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के आज हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसिया
सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ईसाई-इस्लाम वार्ता के बारे में। अगले
सप्ताह भी हम ईसाइयों के योगदान के बारे में सुनना जारी रखेंगे।