2011-01-18 19:39:32

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 23
28 दिसंबर, 2010
सिनॉद ऑफ बिशप्स – यहूदियों के साथ वार्ता की चुनौतियाँ


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने जाना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘अंतरकलीसियाई ईसाइयों का यहूदियों के साथ संबंध के बारे में आज हम जानकारी प्राप्त करेंगे यहूदियों के साथ वार्ता की चुनौतियों के बारे में।
90 श्रोताओ हम आपको बता दें कि अब हम आपको बता दें कि मध्यपूर्व की कलीसिया का यहूदियों के साथ मिलकर चलने या वार्ता करने के मार्ग में क्या-क्या बाधायें या चुनौतियाँ है। कलीसिया का यहूदियों के साथ संबंध को जो चुनौतियाँ है वे मुख्यतः सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक विभिन्नताओं के कारण हैं। काथलिक कलीसिया ने इस बात साफ तौर पर कहा है कि चर्च में अब यहूदी विरोधी प्रवृति नहीं रही है। यहाँ कलीसिया इस बात को भी स्पष्ट रूप से बताना चाहती है कि मध्यपूर्व की कलीसिया ने यहूदी-विरोधी भावना पर कम-से-कम सैद्धांतिक रूप से विजय प्राप्त कर ली है। इस कार्य में वाटिकन द्वितीय के निर्देशन बहुत ही मददगार सिद्ध हुए हैं। अगर आज की परिस्थितियों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यहूदियों और अरबवासियों की समस्या आज राजनीतिक समस्या बन कर रह गयी है। हम कहें वे एक – दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बन गये हैं। उधर जियोनिस्टों के साथ भी ईसाइयों का संबंध के बारे में जो चर्चा है कि मध्यपूर्व के ईसाई उनके विरुद्ध है पूर्णतः राजनीतिक विचार हैं। ऐसी परिस्थिति में ईसाइयों से अपील की जाती है कि वे उनके साथ न्याय और समानता के भाव के साथ मेल-मिलाप के लिये कार्य करें। काथलिक कलीसिया इस बात पर भी बल देती है कि स्थानीय कलीसिया इस बात को ठीक से समझें कि मध्यपूर्व की कलीसिया दूसरे धर्मों के साथ अपने संबंध को सुदृढ़ करने के मार्ग में इसके दो स्वरूप - राजनीतिक और धार्मिक को ठीक से समझे।
91. मध्य पूर्व की काथलिक कलीसिया यहूदियों और जयोनिस्टों के साथ अपने संबंध के बारे में जो विचार व्यक्त किये हैं उनमें इस बात पर बल दिया गया है कि यहूदियों के साथ वार्तालाप का द्वार पुनः खोला जाना चाहिये। इसमें इस बात को भी ध्यान देना चाहिये वार्तालाप की वार्ता जारी रहे यद्यपि यह छोटे पैमाने या दायरे पर ही क्यों न हो। सच बात तो यह है कि स्थानीय कलीसिया के कई छोटे-छोटे दलों ने वार्ता के पहल किये हैं जो सराहनीय है। इस सबंध में इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिये कि वार्ता में प्रार्थना को सर्वोच्च प्रार्थमिकता मिले। और प्रार्थनाओं में भी स्त्रोत्र और बाईबल से लिये गये पाठों के आधार पर विचार और चिन्तन किया जाना उचित होगा। हम आपको बता दें कि प्रार्थना लोगों के मन-दिल को खोलता है और इससे पवित्र आत्मा उनके दिल में प्रवेश करता है और लोगों को शांति, आपसी सम्मान, मेल-मिलाप और क्षमा का वरदान देता है। जब व्यक्ति दूसरे के साथ मेल-मिलाप करने के लिये तैयार है तब आपसी अंतरधार्मिक संबंध का मजबूत होना स्वाभाविक होगा।
92. हम आपको यह भी बता दें कि अंतरधार्मिक वार्ता के संबंध में लोगों की ओर से जो विचार प्राप्त हुए हैं वे इस बात को इंगित करते हैं कि बाइबिल के कुछ वाक्यांश ऐसे हैं जो अंतरधार्मिक वार्ता के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न कर सकते हैं। लोगों को भय है कि बाइबल के कई पद ऐसे हैं जो " हिंसा की संस्कृति " को बढ़ावा दे सकते हैं। फिर भी कुछ लोगों के विचार हैं कि बाइबल के पुराने व्यवस्थान के अध्ययन से यहूदी जाति को समझने में मदद मिलती है और इसके अध्ययन से लोग यहूदियों को समझ सकते हैं और उनकी सराहना कर सकते हैं। बाईबल के अध्ययन और उसकी व्याख्या के उसके स संबंध में दो प्रभु बातों को याद किया जाना चाहिये जिसे परमधर्मपीठीय बाईबल आयोग ने निर्देशित किया है। इसके अनुसार बाईबल आयोग द्वारा मार्गदर्शिका रूप में प्रकाशित दो पुस्तिकायें " इंटरप्रेटेशन ऑफ द बाईबल इन द चर्च " और " द जेविश पीपल एंड देयर सेक्रेज स्क्रिपचर्स इन द क्रिश्चियन बाईबल " को अवश्य ही पढ़ा जाना चाहिये।
93. वार्ता के संदर्भ में ही स्थानीय कलीसिया ने कुछ विशेष प्रयास किये हैं जिसकी तारीफ़ की जानी चाहिये। यहूदियों की परंपराओं को बारीकी से समझने के लिये महाविद्यालयों में ऐतिहासिक और ईशशास्त्रीय अध्ययन की सुविधायें उपलब्ध करा दी गयीं हैं जो सराहनीय कदम है। यहूदियों के जीवन को इस तरह से गहराई से अध्ययन करने से यहूदियों की परंपराओं कलीसियाई संदर्भ में समझने में मदद मिल सकती है। इससे ईसाइयों को दोहरा लाभ होगा । एक ओर तो उन्हें पुराने व्यवस्थान और यहूदियों के बारे में जानकारी प्राप्त होगी तो दूसरी ओर इससे नये व्यवस्थान को समझने में भी मदद मिलेगा।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन में हमने जानकारी प्राप्त की ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित यहूदियों के साथ वार्ता की चुनौतियों के बारे में। अगले सप्ताह हम जानेंगे चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में।














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