कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य भाग
- 23 21 दिसंबर, 2010 सिनॉद ऑफ बिशप्स - ईसाई - यहूदी संबंध
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने
कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन
एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा
बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा
का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया
इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है। परंपरागत
रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत,
मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन,
पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को
यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म
की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही
ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं। वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व
भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी
हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी
देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में
13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित
थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ
था। पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और
गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक
कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया
से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण
निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय
पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों
से आपको परिचित करा दें। पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में
हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘अंतरकलीसियाई
वार्ता के बारे में। आज हम सुनेंगे ईसाइयों का यहूदियों के साथ संबंध के बारे में 85.
श्रोताओ हम आपको बता दें कि काथलिकों का यहूदियों से हाल में संबंध की जो नींव बनी है
उसका थियोलोजिकल या ईशशास्त्रीय आधार है वाटिकन की द्वितीय महासभा। और इसके बारे में
और ही अधिक विचार-विमर्श किये जाने की आवश्यकता है। श्रोताओ हम आपको बता दें कि कलीसिया
ने कई तरह से अन्य धर्मों से संबंध कायम करने और उसे मजबूत करने के बारे में विचार किये
हैं। और उनके बारे में कई घोषणयें की हैं। ख्रीस्तीयों के साथ अन्य धर्मों के रिश्ते
के बारे में संबंध के बारे में कलीसियाई दस्तावेज़ नोस्तरा अयताते में विस्तारपूर्वक
चर्चा की गयी है। इस दस्तावेज़ के एक बड़े भाग में यहूदियों के बारें में विचार किया
गया है। इस दस्तावेज़ में उन बातों की चर्चा है जो ख्रीस्तीयों के साथ के यहूदियों के
संबंध को मजबूत कर सकता है और दोनों समुदायों का आपसी सम्मान भी सुदृढ़ हो सकता है। इसमें
इसमें दोनों समुदायों की आध्यात्मिक विरासत बाईबल और ईशशास्त्रीय अध्ययन के द्वारा पारस्परिक
वार्ता को भी बढ़ावा देता है। 86. हम यहाँ इस बात को भी बता दें कि ‘नोसतरा आएताते’
को संकीर्ण तरीके से नहीं देखा जाना चाहिये। इसे समझने के लिये दोनों समुदायों को चाहिये
कि वे कलीसिया के और दो दस्तावेज़ " लूमेन जेनसियुम " और " देई वेरबुम " को साथ लेकर
चलना चाहिये। ‘लूमेन जेनसियुम’ में कलीसिया के विभिन्न रूपों पर चर्चा की गयी है और कलीसिया
के नये व्यवस्थान के लोगों को पुराने व्यवस्थान की निरंतरता के रूप में दिखलाया गया है।
कलीसिया ने आरंभ से इस बात को ध्यान दिया कि वे सबों के साथ अपना रिश्ता सौहार्दपूर्ण
रखे। इसने यहूदियों के साथ अपने संबंध बनाये रखने में भी आरंभ से अपनी उत्सुकता दिखलायी
है। कलीसिया का मानना है कि यहूदियों को ही ईश्वर ने प्रतिज्ञा की थी और इसी समुदाय से
येसु का जन्म भी हुआ। 87. अगर हम ‘देई वेरबुम’ के बारे में बातें करें तो हम पाते
हैं कि यह इस बात पर विचार करती है कि पुराना व्यवस्थान सुसमाचार या कहें येसु के जन्म
की तैयारी का समय था। इतना ही नहीं यह दस्तावेज़ इस बात को मानती है कि पुराना व्यवस्थान
का इतिहास मुक्ति के इतिहास का अहम् हिस्सा है। ऐसा बता करके कलीसिया इस बात को दिखाना
चाहती है कि यहूदी समुदाय के साथ ही ईश्वर ने अपना विधान स्थापित किया था। इस प्रकार
के संक्षिप्त ईशशास्त्रीय व्याख्यान के द्वारा ही कलीसिया इस बात को समझाने में समर्थ
है कि ख्रीस्तीयों के जीवन में यहूदियों का कितना बड़ा स्थान है। कलीसिया यह भी बताना
चाहती है कि यहूदी ईसाइयों के " बड़े भाई " के समान तो हैं ही पर इस संबंध को सुदृढ़
करने के मार्ग बिना बाधा के नहीं हैं। 88. हमको यह भी बता दें कि ईशशास्रीय और
प्रेरितिक सिद्धांत हम अन्तरधार्मिक वार्ता के लिये प्रेरित करता है। और इसी के तहत्
कलीसिया ने वार्ता के विभिन्न पहल किये हैं। उन पहलों में हम कुछ विशेष संगठनों के नाम
ले सकते हैं। येरूसालेम में अन्तरधारमिक संस्थाओं की अंतरधार्मिक कौंसिल की स्थापना
‘लैटिन पैट्रियार्कस कमीशन फॉर डायलॉग विथ जूस’ की स्थापना और परमधर्मपीठीय स्तर पर इस्राएल
के नबी के साथ आपसी बातचीत प्रमुख हैं। यहूदियों के साथ वार्ता के लिये भी एक कमीशन की
स्थापना की गयी है। काथलिक कलीसिया के कुछ ठोस कदम यह दिखाते हैं कि काथलिक कलीसिया यहूदियों
के साथ वार्ता करने के लिये तत्पर है। 89. हम आपको यह भी बता दें कि ईसाई- यहूदी
वार्ता के कारण इस्त्राएल फिलिस्तीन वार्ता पर भी प्रभाव पड़ा है। इस संबंध में यही कहा
जा सकता है कि संत पापा जब अपनी प्रेरितिक यात्रा के दौरान येरूसालेम गये थे तब उन्होंने
अपने मेल-मिलाप संबंधी अपने इरादे को दो स्वागत समारोहों में स्पष्ट कर दिया था। बेतलेहेमे
में 13 मई 2008 को उन्होंने कहा था " कि राष्ट्रपति महोदय वाटिकन आप आपके पुरखों की धरती
में फिलिस्तीन के स्वतंत्र गणराज्य के माँग का समर्थन करती है ताकि इसके पड़ोसी राष्ट्रों
के साथ अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त सीमा में शाति कायम हो सके। पाठको, कलीसियाई
दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम में हमने पढ़ा ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’
नामक दस्तावेज़ में वर्णित ईसाइयों का यहूदियों के साथ संबंध के बारे में। अगले सप्ताह
हम चर्चा करेंगे यहूदियों के साथ वार्ता की चुनौतियों के बारे में.