कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व
में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग -26 18 जनवरी, 2011 सिनॉद ऑफ बिशप्स – ‘आधुनिकता’ की अस्पष्टता और वार्ता
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने
कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन
एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी
थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिड्ल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा का आयोजन
इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया इस प्रकार
की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है। परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी
क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन,
साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल,
गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व
के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों
में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन्
1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद
संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों
की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी
विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों
के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था। पिछले अनुभव बताते हैं कि
महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं
उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं
पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय
गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र
की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है। एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण
महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में
उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें। पाठको, कलीसियाई
दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले सप्ताह हमने जाना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’
नामक दस्तावेज़ में चर्च का मुसलमानों के साथ संबंध के बारे में। आज हम जानकारी प्राप्त
करेंगे " आधुनिकता " की अस्पष्टता और अंतरधार्मिक वार्ता के बारे में 103. " आधुनिकता
" के बारे में जब हम बातें करते हैं तो हम आज इस बात को नकार नहीं सकते हैं कि संचार
के माध्यमों के कारण यह समाज तेजी से समाज का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। टी.वी और इंटरनेट
ने समाज में कई नये मूल्यों को देना आरंभ कर दिये हैं इससे मध्यपूर्व के ईसाई भी प्रभावित
हुए बिना नहीं रहे हैं। कई बार तो लोगों ने अनुभव किया है कि मीडिया ने नये मूल्यों को
समाज के सामने रखा है और कई बार तो मीडिया से सामाजिक मूल्यों का ह्रास भी हुआ है। ऐसा
होने से समाज में एक अस्पष्टता की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। अगर हम " आधुनिकता " के
एक पक्ष को देखें तो यह बात स्पष्ट होता है कि इसमें कुछ आकर्षण है क्योंकि यह लौकिक
भलाई की ओर इंगित करता है। दुसरी ओर आधुनिकता सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा को भी
प्रभावित करता है। कुछ लोगों का मानना है कि " आधुनिकता " न्याय और समानता के लिये भी
एक संघर्ष है, कमजोर वर्ग के लोगों के अधिकारों की रक्षा, नर-नारी तथा विश्वासियों और
अविश्वासियों की समानता और मानवाधिकारों का समर्थन करता है। इतना ही नहीं इन मूल्यों
का समाज में लगातार विकाश हो रहा है। 104. इस तरह से अगर हम मध्य पूर्व राष्ट्र में
" आधुनिकता " के बारे विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि अधिकतर मुसलिम विश्वासी आधुनिकता
को नास्तिकता और अनैतिकता का प्रचारक मानते हैं। इसके साथ उनका विचार है कि आधुनिकता
मुसलमानों की संस्कृति पर आक्रमण हे और उनक मूल्यों पर खुला प्रहार है और उनके जीवन को
अस्त-व्यस्त करता है।यह बात भी सामने आयी है कि कई मुसलमान इस बात को नहीं जानते हैं
कि उन्हें " आधुनिकता " के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिये। कुछ लोग ऐसे भी हैं
जो इसके कट्टर विरोधी हैं और चाहते हैं कि आधुनिकता से वे बचे रहें। जो भी हो " आधुनिकता
" में एक ऐसा आकर्षण है जो लोगों प्रभावित करता है तो कुछ लोगों में घृणा उत्पन्न करता
है। अतः मध्य पूर्व की कलीसिया की यह ज़िम्मेदारी है कि वह स्कूलों और मीडिया के माध्यम
से ही ऐसा प्रशिक्षण दे ताकि समाज में ऐसे लोगों निर्माण हो सके जो " ‘आधुनिकता’ की अच्छाई
और बुराई को पहचानें। 105. "आधुनिकता" न केवल मुसलमानों के लिये ख़तरे की घंटी है
पर ईसाइयों के लिये भी संकट खड़ा कर सकता है। आधुनिकता के कारण ईसाई-समुदाय भी ईश्वर
से दूर होते जा रहे हैं। नास्तिकता, भौतिकवाद, सापेक्षवाद, तटस्थता का मनोभाव उनपर हावी
होता जा रहा है। यह न केवल मुसलमान समुदाय के लिये लेकिन ईसाई समुदाय को यह बताये जाने
की आवश्यकता है कि वे ईश्वर को अपने जीवन और समुदाय में उचित स्थान दें। इसके साथ ही
वे अपने प्रार्थनामय जीवन को मजबूत करें और अपनी एकता सुदृढ़ कर पवित्र आत्मा के साक्ष्य
बनें। " आधुनिकता " से जुड़े खतरों में से एक है अतिवादिता या कट्टरवादिता। इसमें ऐसी
क्षमता है कि यह ईसाइयों, ईसाई समुदायों और पूरी कलीसिया का आसानी से विनाश कर सकता है।
106. इतनी बातें आधुनिकता और उससे उत्पन्न ख़तरे के बारे मे जानने के बाद मध्य पूर्व
के राष्ट्रों को यह बताया जाना चाहिये कि ईसाइयों और मुसलमानों का एक साथ मिलकर रहना
अति आवश्यक है।मध्यपूर्व के एक समुदाय के रूप में इस बात को समझना भी ज़रूरी है कि मध्यपूर्व
के ईसाई एक हैं उनकी अपनी पहचान है और वे मध्यपूर्व के राष्ट्रों के नागरिकों के रूप
में ही जाने जायेंगे। आज ईसाई समुदाय का यह दायित्व है कि वे एक साथ मिलकर शांति के लिये
कार्य करें। इतना ही नहीं यह ईसाइयों का एक ईसाई के रूप में दायित्व है कि वे समाज की
बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष करें चाहे वे सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक या नैतिक
ही क्यों न हों। ईसाइयों का दायित्व है कि वे ऐसा प्रयास करें कि क्षेत्र शांति और सौहार्दपूर्ण
बन सके और एक सुन्दर न्यायसंगत समाज का निर्माण हो सके। 107. जब ईसाई इस तरह का
सकारात्मक योगदान देना अपनी ख्रीस्तीय परंपरा को बरकरार रखने की दिशा में अगला कदम है।
ईसाइयों ने सदा से ही ही शिक्षा और संस्कति के विकास में अपन् योगदान दिया है जिससे मानव
समाज को बहुत लाभ हुए हैं। ईसाई चाहे वे किसी देश के ही क्यों न हो संस्कृति आर्थिक और
राजनीतिक जीवन के क्षेत्र में उनका योगदान अद्वितीय रहा है। अरब देश के नवनिर्माण में
भी ईसाइयों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़
एक अध्ययन के आज हमने जानकारी प्राप्त की ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’
नामक दस्तावेज़ में वर्णित आधुनिकता की अस्पष्टता और अंतरधार्मिक वार्ता के बारे में।
अगले सप्ताह हम जानेंगे ईसाई-इस्लाम वार्ता के बारे में।