2011-01-08 18:17:00

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत


नई दिल्ली, 8 जनवरी, 2011 (उकान) चर्च के नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय का स्वागत किया है जिसमें न्यायालय ने यह आदेश दिया है कि उन चार व्यक्तियों को कठोर कारावास की सजा दी जाये जिन्होंने 16 वर्ष पूर्व एक आदिवासी महिला को निर्वस्त्र कर परेड कराया था।


विदित हो सर्वोच्च न्यायालय महाराष्ट्र राज्य सरकार को सजा को कठोर करने का निर्देश उस समय दिया जब एक अभियुक्त ने हाई कोर्ट में सन् 1998 में सुनाये गये 1 वर्ष के कारावास की सजा को चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त की यह अपील ही उसकी उस कुटिल मानसिकता का परिचायक है कि " अभियुक्त आदिवसियों को बहुत तुच्छ या नीच समझता है। "
यह व्यक्ति की मर्यादा को घोर अपमान है, इसीलिये उसे कठोर सजा दी जानी चाहिये। आदिवासियों के प्रति किया जा रहा दुर्व्यवहार भारतीय इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत की कुल आबादी की 8 प्रतिशत जनता आदिवासी है और उन्हें कई तरह से दरकिनार और कमजोर कर दिया गया है ।
एक ओर तो वे गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी के कारण कमजोर हैं तो दूसरी ओर अशिक्षा और भूमिविहीनता के कारण शोषित भी हैं।
नयी दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट के आदिवासी और दलित विभाग के निदेशक जेस्विट फादर डॉ. मरियानुस कुजूर ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि " अदालत का निर्देश लोगों को आदिवासियों की वास्तविक स्थिति से अवगत कराने में सहायक सिद्ध हुआ है।"
फिर भी उन्होंने कहा कि इस मामले में सुप्रीम के द्वारा निर्देश दिये जाने की आवश्यकता पड़ना खेदपूर्ण है क्योंकि " न्याय में देर होना न्याय नहीं दिये जाने के बराबर है।"
सीबीसीआई के आदिवासी और दलित आयोग के सचिव फादर जी कोसमोन अरोक्यराज ने कहा कि " ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका भी आदिवासियों व दलितों के साथ पक्षपातपूर्ण न्याय करती है। "
उन्होंने आदिवासियों, दलितों और कमजोर वर्ग के लोगों से आह्वान किया कि वे एकजुट हों और न्याय के लिये आवाज़ उठायें।
ज्ञात हो कि सन् 1994 ईस्वी में महाराष्ट्र में हुई इस घटना में एक महिला को उस समय पीटा गया और निर्वस्त्र कर रास्ते में घुमाया गया जब उन्हें पता चला कि उसका संबंध उच्च जाति के एक व्यक्ति के साथ है। उस व्यक्ति को सन् 1998 ईस्वी में न्यायालय ने एक साल की सजा सुनायी थी।








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