प्रभु प्रकाश महापर्व के उपलक्ष्य में अर्पित ख्रीस्तयाग के अवसर पर सन्त पापा बेनेडिक्ट
16 वें के प्रवचन के कुछ अंश
श्रोताओ, 25 दिसम्बर को प्रभु ख्रीस्त की जयन्ती मना लेने के 12 दिन बाद ख्रीस्तीय धर्मानुयायी
छः जनवरी को ऐपिफनी, प्रभु प्रकाश का महापर्व अथवा तीन राजाओं का महापर्व मनाते हैं।
वस्तुतः ऐपिफनी का अर्थ है किसी चीज़ को दर्शनीय बनाना, किसी को प्रकाशित करना या किसी
के विषय में लोगों को ज्ञान कराना। यह महापर्व सुदूर पूर्व से, तारे के इशारे पर बेथलेहेम
पहुँचे तीन विद्धानों द्वारा शिशु येसु के दर्शन के स्मरणार्थ मनाया जाता है। ...............
प्रभु
प्रकाश महापर्व के उपलक्ष्य में सार्वभौमिक काथलिक कलीसिया के परमधर्मगुरु सन्त पापा
बेनेडिक्ट 16 वें ने वाटिकन स्थित सन्त पेत्रुस महामन्दिर में महायाग अर्पित किया तथा
बाद में महामन्दिर के प्राँगण में एकत्र तीर्थयात्रियों के साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ
किया। ख्रीस्तयाग प्रवचन में सन्त पापा ने मसीह के दर्शन करने पहुँचे तीन राजाओं के महत्व
पर प्रकाश डाला, उन्होंने कहाः
"अति प्रिय भाइयो एवं बहनो, प्रभु प्रकाश महापर्व
के दिन भी कलीसिया मुक्तिदाता येसु के रहस्य पर मनन करती तथा उसका समारोह मनाना जारी
रखती है। विशेष रूप से, आज का महापर्व येसु जन्म की नियति तथा इसके विश्व व्यापी महत्व
को रेखांकित करता है। मरियम के गर्भ में मानव का रूप धारण करने वाले ईश पुत्र, केवल उस
इसराएली जाति के लिये धरती पर नहीं आये जिसका प्रतिनिधित्व बेथलेहेम के चरवाहों ने किया
था बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये जिसका प्रतिनिधित्व तीन राजाओं ने किया। इन्हीं
राजाओं की यात्रा तथा इन्हीं की मसीही खोज पर मनन हेतु कलीसिया आज हमें आमंत्रित करती
है। सुसमाचारों में हमें पढ़ा कि वे सुदूर पूर्व से बेथलेहेम पहुँचे थे तथा पूछने लगे
थेः "यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा है। हम उन्हें
दण्डवत करने आये हैं।" प्रश्न उठता है कि ये किस प्रकार के लोग थे और किस प्रकार के तारे
को उन्होंने देखा था? सम्भवतः ये ऐसे विद्धान थे जो आकाश मण्डल का अध्ययन करते थे, तथापि,
नक्षत्रों में भविष्य को पढ़ने तथा उससे धन कमाने के लिये नहीं बल्कि ये खोजकर्त्ता थे,
जो सामान्य से हट कर कुछ और खोज रहे थे, वे सच्चे प्रकाश की खोज कर रहे थे, उस प्रकाश
की खोज कर रहे थे जो ऐसी राह दिखा सके जिसपर चलकर जीवन को साकार किया जा सकता था। वे
इस तथ्य के प्रति निश्चित्त थे कि सृष्टि में ऐसी कोई बात है जिसे हम "ईश्वर के हस्ताक्षर"
रूप में परिभाषित कर सकते हैं, ऐसा हस्ताक्षर जिसकी मनुष्य को खोज करनी चाहिये तथा जिसका
अर्थ निकालने का प्रयास करना चाहिये। इन राजाओं तथा ईश्वर द्वारा प्रेषित संकेत से अपने
आप की दिशानिर्देशित करने की उनकी इच्छा का स्वागत करने का सर्वोत्तम तरीका शायद उस दृश्य
पर चिन्तन होगा जिसे उन्होंने जैरूसालेम महानगर में अपनी तीर्थयात्रा के बाद पाया। सबकुछ
के अतिरिक्त, उनकी मुलाकात हेरोद से हुई। वह भी नवजात शिशु के बारे में जानने को उत्सुक
था किन्तु उनकी आराधना के लिये नहीं अपितु उन्हें नष्ट कर देने के इरादे से। हेरोद एक
शक्ति सम्पन्न पुरुष था जो किसी दूसरे में केवल अपने विरोधी और प्रतिद्वन्दी को देखता
था जिसका विनाश आवश्यक था।
वस्तुतः यदि हम विचार करें तो पायेंगे कि ईश्वर भी
उसे अपना विरोधी लगता था, एक ऐसा विरोधी जो अत्यन्त ख़तरनाक था, ऐसा विरोधी जो मनुष्यों
से उनकी महत्वपूर्ण भूमिका छीन लेना चाहता है, जो मनुष्यों से उनकी स्वतंत्रता, उनकी
सत्ता छीन लेना चाहता है; ऐसा प्रतिद्वन्दी जो जीवन का निश्चित्त मार्ग सुझाता तथा इस
प्रकार वह सब करने की छूट नहीं देता जो व्यक्ति चाहता है। हेरोद अपने विद्धानों से धर्मग्रन्थ
में लिखी नबी मीकाह की बातें सुनता है किन्तु उसका एकमात्र विचार था सिंहासन जिसे हासिल
करने के लिये स्वयं ईश्वर को ही धुँधला करना पड़ जाता तथा व्यक्ति सत्ता के विशाल शतरंज
की बिसात पर गोट या मोहरे मात्र बन कर रह जाते हैं।"
सन्त पापा ने कहा...............
"हेरोद एक ऐसा व्यक्ति है जिसके प्रति हमारी कोई संवेदनशीलता नहीं है तथा उसकी क्रूरता
के लिये हमेशा से ही हम उसे नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करते आये हैं। किन्तु हमें ख़ुद
से प्रश्न करना चाहियेः क्या ऐसा नहीं है कि हममें भी कुछ कुछ हेरोद जैसा है? शायद हम
भी कभी कभी ईश्वर को अपने प्रतिद्वन्दी के रूप में देखते हैं? शायद हम भी ईश्वर के चिन्हों
के समक्ष अन्धे बन जाते, उनके शब्दों के प्रति बहरे बन जाते, सिर्फ इसलिये कि हम सोचते
हैं कि वे हमारे जीवन को सीमाओं में बाँध देते हैं तथा हमें उस तरह से नहीं जीवन यापन
करने देते जैसा कि हम चाहते हैं?"
सन्त पापा ने कहा........... "अति प्रिय भाइयो
एवं बहनो, जब हम ईश्वर को इस दृष्टि से देखते हैं तब स्वाभाविक है कि हम असन्तुष्टि का
अनुभव करें क्योंकि हम उसे अपने जीवन का संचालन नहीं करने देते जो सभी कुछ का आधार है।
अपने मन से तथा अपनेन हृदय से हमें प्रतिद्वन्दिता के विचार को निकाल देना चाहिये, इस
विचार को निकाल देना चाहिये कि ईश्वर को जगह देने से हमारे लिये जगह कम हो जायेगी; इस
निश्चित्तता के प्रति अपनी आँखों को हम खोलें कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही प्रेम है जो हमसे
कुछ नहीं छीनते, अपितु, ईश्वर ही एकमात्र हैं जो हमारे समक्ष यथार्थ आनन्द एवं परिपूर्णता
में जीवन यापन करने की सम्भावना प्रस्तुत करने में समर्थ हैं।"
अन्त में
सन्त पापा ने कहाः ..................."ईश्वर इस संसार की शक्ति में अपने को प्रकट नहीं
करते अपितु अपने प्रेम द्वारा स्वतः की प्रकाशना करते हैं। ऐसा प्रेम हमारी स्वतंत्रता
से मांग करता है कि वह हमें रूपान्तरित होने दे ताकि हम उस तक पहुँच सकें जो स्वयं प्रेम
है। वस्तुतः, आज हमारे लिये भी ज़्यादा कुछ नहीं बदला है सबकुछ वैसा ही है जैसा कि वह
तीन राजाओं के ज़माने में था। यदि हमसे यह पूछा जाये कि किस प्रकार ईश्वर विश्व को मुक्ति
दिलाने आये तो शायद हमारा उत्तर होगा कि उन्हें अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ प्रकट होना
चाहिये ताकि वे विश्व को न्याय पर आधारित एक आर्थिक निकाय दे सकें जिसमें प्रत्येक को
वह सब मिल जाये जिसकी उसे चाह है। सच तो यह है कि यह एक प्रकार से मनुष्य पर गहरा आघात
होगा क्योंकि उसे उसकी प्रकृति एवं उसके व्यक्तित्व के मूलभूत तत्वों से ही वंचित कर
दिया जायेगा। ईश्वर की सत्ता बिलकुल अलग ढंग से प्रकट होती हैः वह बेथलेहेम के निर्धन
गोशाले में प्रकट होती और वहीं पर हमें भी जाना चाहिये।
तीन राजाओं को भी आलोकित
होने के लिये ईश्वर का वचन सुनना पड़ा क्योंकि ईश्वर का वचन ही यथार्थ तारा है जो मनुष्यों
के वचनों की अनिश्चित्तताओं में हमें ईश्वरीय सत्य की वैभवपूर्ण चमक दिखाता है। अति प्रिय
भाइयो एवं बहनो, हम भी यथार्थ तारे यानि ईश्वर के शब्द से स्वतः को आलोकित होने दें,
उसी के सहारे अपने जीवन में कलीसिया के साथ मिलकर चलें। ऐसा कर हमारा रास्ता सदैव ज्योति
से प्रज्वलित रहेगा जो अन्य कोई हमें नहीं दे सकता। तब हम भी अन्यों के लिये तारे बन
जायेंगे तथा उस प्रकाश को प्रतिबिम्बित कर सकेंगे जिससे ख्रीस्त ने हमारे जीवन को प्रकाशमान
किया है।