कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य भाग
- 17 9 नवम्बर, 2010 सिनॉद ऑफ बिशप्स –कलीसियाई एकता
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने
कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन
एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा
बुलायी थी जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना गया । इस विशेष सभा
का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया गया था । काथलिक कलीसिया
इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है। परंपरागत
रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत,
मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन,
पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को
यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म
की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही
ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं। वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व
भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी
हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी
देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में
13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित
थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ
था। पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और
गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक
कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया
से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण
निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के बारे में हम चाहते हैं कि अपने प्रिय
पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठे मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों
से आपको परिचित करा दें। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में
हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित मध्यपूर्व
ईसाइयों के बारे में । आज हम सुनेंगे अंतरकलीसियाई एकता और विश्वासियों की एकता के बारे।
58.
श्रोताओ, हम आपको बता दें कि मध्यपूर्व की कलीसिया की महासभा के पूर्व जो समिति बनी उसने
इस बात पर बल दिया है कि जो मसीह के सेवक और उसकी सेवा के लिये समर्पित भाई और बहन
हैं तथा ऐसे लोग जो उनका नज़दीकी से अनुसरण करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे अपने
समुदाय के लिये आध्यात्मिक और नैतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी वफ़ादारी से निभायें। उन्हें
चाहिये कि वे दूसरों के लिये ख्रीस्तीय जीवन का आदर्श प्रस्तुत करें। काथलिक समुदाय उनसे
यह उम्मीद करती है कि वे सुसमाचार के मूल्यों को अपने जीवन में अमल करें और पूरे समुदाय
के लिये ख्रीस्तीय मूल्यों का नमूना प्रस्तुत करें। इस संबंध में विश्वासियों के जो विचार
प्राप्त हुए हैं उसके अनुसार वे चाहते हैं कि धर्मसमाजी सादा जीवन बितायें। वे चाहते
हैं कि एक धर्मसमाजी धन-दौलत के प्रति आसक्त न हों और समर्पित और नैतिक रूप से स्वच्छ
जीवन जीयें। धर्माध्यक्षों की महासभा के द्वारा वे इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं
कि एक ओर धर्मसमाजियों में अच्छाइयाँ है उनका विकास हो और उनमें जो कुछ कमजोरियाँ घुस
गयीं हैं उन्हें निकालने के लिये साहसपूर्ण कदम उठाया जाये। 59. श्रोताओ, मध्यपूर्व
की कलीसिया के लिये जिस समिति का गठन हुआ था उनका मानना है क सामुदायिक जीवन में आवश्यक
सुधार लाने के लिये प्रथम ख्रीस्तीय समुदाय को ही आदर्श माना जाये। प्रेरित चरित में
इस बात की चर्चा की गयी है कि जो येसु पर विश्वास करते थे वे मन-प्राण एक था। उनका सबकुछ
साझे में था। इसके साथ ही प्रेरितों ने इस बात का सदा प्रचार किया कि येसु मसीह जी उठे
हैं और उनकी कृपा उन पर बनी हुई है। उनके बीच कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं रह गया था जो गरीब
और ज़रूरतमंद हो।उनके पास जो कुछ भी था उसे उन्होंने बेच डाला था और उससे जो कुछ भी मिला
उससे समुदाय का खर्च चलता था। श्रोताओ, सच पूछा जाये तो प्रथम ख्रीस्तीय समुदाय ही
सच में आदर्श ख्रीस्तीय समुदाय थी जहीँ समुदाय के सदस्य एक दूसरे से जुड़े हुए थे। उनका
आपसी संबंध सिर्फ़ प्रति दिन की प्रार्थना पर निर्भर नहीं करता था पर वे अपने दिनचर्या
से जुड़े हुए थे। आज मध्यपूर्व में इसी प्रकार के समुदायों की आवश्यकता है जो अपने पल्ली
के दायरे बड़ा हो पर प्रथम समुदाय के आदर्शों पर चले और कार्य करे। 60. मध्यपूर्व
की कलीसिया की जो समिति बनी थी वह यह चाहती है कि धर्माध्यक्षों की महासभा विश्वासियों
को प्रोत्साहित करने के लिये निर्देश दे ताकि वे बपतिस्मा प्राप्त ईसाइयों के समान समुदाय
से पूर्ण रूप से जुड़ कर कार्य करें। कलीसिया इस बात की भी आशा करती है कि पुरोहित इस
कार्य में लोगों को प्रोत्साहन दें और मदद दें ताकि लोग सामुदायिक कार्यों में खुलकर
सहभागी हो सकें। 61. श्रोताओ, यहाँ पर समिति इस बात की आशा करती है कि विश्व में जो
भी अंतरराष्ट्रीय संस्थायें और संगठन है वे इस बात को समझे कि मध्यपूर्व की कलीसिया
के लोगों की स्थिति कैसी है, जीवन और परंपरा कैसा है और वहाँ के लोगों का मनोभाव कैसा
है और उसी के आधार पर यहाँ की कलीसिया को अपनी बातों और विचारों से अवगत करायें। यहाँ
पर इस बात को भी बताया जाना उचित होगा कि कई लोग मिशनरी मध्यपूर्वी राष्ट्रों में कार्य
के लिये आते हैं और अधिकतर बार वे यहाँ की स्थानीय कलीसिया से कई अच्छा बातों और पूर्व
की आध्यात्मिकता को सीखते हैं। स्थानीय लोगों ने इस बात को भी गौर किया है कि पश्चिम
से आने वाले मिशनरियों ने सदा ही इस बात का प्रयास किया है कि स्थानीय परंपराओं और रीति-रिवाज़ों
को सीखें और अपने ज्ञान को अपने स्थानीय धर्माध्यक्षों के अधीन रह कर विस्तृत करते हुए
लोगों के लिये अपनी सेवायें प्रदान करें। ऐसा होने से ही स्थानीय कलीसिया मजबूत हो पायेगी
और इससे सुसमाचार प्रचार का कार्य सुदृढ़ और प्रभावकारी हो पायेगी। इससे स्थानीय लोगों
का विश्वास तो मजबूत होगा ही, यहाँ की स्थानीय कलीसिया भी ख्रीस्तीय जीवन का सच्चा साक्ष्य
दे पायेगा। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की
कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘मध्यपूर्व की कलीसिया ईसाई
अंतरकलीसियाई एकता और विश्वासियों की एकता के बारे में । अगले सप्ताह हम सुनेंगें ईसाई
साक्ष्य के बारे में