2010-11-09 18:39:35

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 10
21 सितंबर, 2010
सिनॉद ऑफ बिशप्स – मध्यपूर्व में ईसाइयों की भूमिका


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हमने कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी है जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना जायेगा । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया जायेगा। काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चलने वाले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के पूर्व हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठने वाले मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘मध्यपूर्व की कलीसिया के प्रेरितिक और मिशनरी कार्य के बारे में। आज हम सुनेंगे मध्यपूर्व में ईसाई समुदाय की भूमिका के बारे में।
24. पाठको, हम आपको यह बता दें कि हालाँकि मध्यपूर्वी देश में विभिन्नतायें हैं फिर भी अरबी तुर्की और इरानी समुदाय कई मायने में एक दूसरे से मिलते जुलते हैं और उनकी समान विशेषतायें हैं। अगर हम इन तीनों समुदायों के पारिवारिक जीवन और शिक्षा की बात करें तो हम पायेंगे ये स्वीकारवाद से प्रभावित है चाहे यह अपने बीच का संबंध हो, ईसाईयों का गैर ईसाइयों के साथ संबंध का।स्वीकारवाद इनके व्यवहार और एक-दूसरे के प्रति भाव को प्रभावित करता है। जैसा कि विश्व के अन्य भागों मे भी होता रहा है इन समुदायों के बीच के आपसी संबंधों में धर्म की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही है।
कई बार धर्म ही इनके बीच के संबंध में कटुता लाने का कारण बनती रही है। कई बार धर्म ही दुश्मनी या एक समुदाय को दूसरे समुदाय से अलग रखने की भूमिका में पायी गयी है। ऐसे विपत्ति के समय में यह ईसाइयों को यह सलाह दी जाती है कि वे अपने अपने वास्तविक घर या राष्ट्र के साथ अपने को जोड़ें। अगर ईसाई ऐसा नहीं करते हैं तो ईसाइयों की उपस्थित मध्यपूर्वी राष्ट्रों से समाप्त हो जायेगी जो कि मध्यपूर्वी राष्ट्रों के लिये अहितकारी होगा।

25. मध्यपूर्वी राष्ट्रों के प्रत्येक देश की परिस्थितियों अलग-अलग है। इसलिये यदि ईसाई समुदाय अपने स्थान में सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक या धार्मिक मामलों में कुछ योगदान देना चाहे तो उसे चाहिये कि वह वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन करे। यहाँ इस बात को भी बताया जाना उचित होगा कि राष्ट्र इस बात का भी कतई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि उस राष्ट्र में ईसाइयों की जनसंख्या कितनी है। इसके अलावा इस बात को भी ध्यान देना होगा कि उस राष्ट्र या क्षेत्र में काथलिकों की संख्या कितनी है और उस क्षेत्र में किस प्रकार की सरकार सत्ता में है। साधारणतः काथलिक कलीसिया इस बार पर बल देती रही है कि चाहे ईसाई समुदाय किसी भी देश का नागरिक क्यों न हो उसे चाहिये कि वह वहाँ के स्थानीय समुदाय और विभिन्न सम्प्रदायों के साथ मिलकर कार्य करे। मध्यपूर्वी राष्ट्रों में इसी बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये। यहाँ ईसाइयों को चाहिये कि स्थानीय मुसलिम समुदाय के साथ मिल कर और वहाँ के बुद्धिजीवियों और समाज सेवियों के साथ मिलकर नयी और सकारात्मक योजनाओं पर अमल करे ताकि राष्ट्र का कल्याण हो सके। मध्यपूर्वी देशों में ईसाइयों को चाहिये कि वे सरकार की उन नीतियों को बढ़ावा देने में योगदान करे जिससे धर्मनिर्पेक्षता बढ़े और धार्मिक कट्टरवाद या थियोक्रसी या राष्ट्रधर्म जैसे विचारों को प्रोत्साहन न मिले। ऐसा होने से ही विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता और समानता को बढ़ावा मिल पायेगा। इसके साथ ही ईसाइयों को चाहिये कि वे प्रजातांत्रिक मूल्यों के विकास और विस्तार के लिये कार्य करें ताकि धर्मनिर्पेक्षता की भावना को देश में उचित स्थान प्राप्त हो सके। ऐसा होने से ही धर्म की भूमिका स्पष्ट हो पायेगी। ऐसा करते हुए ईसाइयों को इस बात को भी ध्यान देना चाहिये कि वे धार्मिक मामलों और राजनीतिक मामलों अलग-अलग तरीके से देखे और उनका पूर्ण सम्मान करे।
26. अगर हम मध्यपूर्वी राष्ट्रों में सुसमाचार के प्रचार के बारे में विचार करें तो यही कहा जा सकता है कि ईसाइयों को चाहिये कि उस क्षेत्र में रहने वाले ईसाइयों के साथ अपना संबंध मजबूत करें और आपसी एकता बनायें रखें। आपसी संबंध बनाये रखने के लिये उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे परंपरागत संपर्क के साधनों के साथ ही आधुनिक सामाजिक सम्प्रेषण का भी प्रयोग करें। उन्हें यह सलाह दी जाती है कि रेडियो टेलेविज़न इंटरनेट के साथ-साथ एसएमएस के सहारे भी एक-दूसरे से जुड़े रहें। मध्यपूर्वी देशों के राष्ट्रों ने हमेशा ही अपने पुरोहितों को प्रशिक्षण के अपने देश से बाहर विशेषकर के रोम भेजा है ताकि वे उनमें कलीसिया के संबंध में विशेष समझदारी आ सके। स्थानीय कलीसिया का मानना है कि रोम के परमधर्मपीठीय ऑरिन्टल महाविद्यालयों में पढ़ाई करने से पुरोहितों को काथलिक कलीसिया और इसी शिक्षा को समझने में विशेष मदद मिलती रही है।

27. पाठको, अभी हमने जिन बातों पर विचार किया है उन्हें पूरा करने के लिये पूर्वी कलीसिया ने कुछ ठोस कदम भी उठायें हैं जिनकी चर्चा करना यहाँ उचित होगा। पूर्वी कलीसिया मानती है कि वह स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अन्यों के लिये कार्य करे तब ही सबों का कल्याण संभव हो पायेगा। यहाँ की कलीसिया चाहती है वह परिवार समुदाय संघों के उचित विकास के लिये कार्य करे तब ही शहरों कस्बों क्षेत्रों और राष्ट्र का उचित विकास हो पायेगा। उनका यह भी मानना है कि वे सार्वजनिक हित के कार्यों में अपने को लगाये। यह कलीसिया यह भी चाहती है कि वह राजनीतिज्ञों की मदद करे ताकि वे अपने दायित्व को भली-भाँति निभायें ताकि व्यक्ति का पूर्ण विकास संभव हो सके। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन कार्यक्रम में हमने सुना मध्यपूर्वी राष्ट्रों में ईसाइयों की भूमिका के बारे में। अगले सप्ताह ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ईसाइयों की भूमिका के बारे हम सुनना जारी रखेंगे।

पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन में हमने जाना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘मध्यपूर्व की कलीसिया में ईसाई समुदाय की भूमिका के बारे में। अगले सप्ताह हम जानेंगे ईसाई समुदाय के बारे में जानकारी प्राप्त करना जारी रखेंगे।










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