2010-10-05 20:03:29

कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन
मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
भाग - 8
7 सितंबर, 2010
सिनॉद ऑफ बिशप्स – मध्यपूर्व की कलीसिया का विभाजन


पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हम एक नया कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य ’ कहा गया है।
संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों की एक विशेष सभा बुलायी है जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना जायेगा । इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया जायेगा। काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती है।
परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान, तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं।
वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन 24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन सन् 1998 ईस्वी में हुआ था।
पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है। इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति को प्रभावित करता रहा है।
एक पखवारे तक चलने वाले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के पूर्व हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठने वाले मुद्दों और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें।
श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ के बाईबल पर आधारित चिन्तन के बारे में। आज हम सुनेंगे ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘मध्यपूर्व की कलीसिया में हुई विभाजन के बारे में।
13.श्रोताओ, आइये आज हम आपको मध्यपूर्वी राष्ट्रों की स्थिति से परिचित करा दें। सबसे पहले हम इस बात पक्ष को जानेंगे कि मध्यपूर्वी राष्ट्र अनेकता में एकता का एक अनुपम संगम है। मध्यपूर्व में चर्च का इतिहास न केवल यहाँ के ईसाइयों के लिये महत्त्वपूर्ण है वरन् पूरे विश्व के ईसाइयों के लिये यह विशेष महत्त्व का है। खेद के साथ इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ता है कि इसके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी प्राप्त है। हम इस बात को आरंभ ही में जान लें कि ईसाइयों की जो भी विभिन्न कलीसियायें हैं सबों ने इस सत्य को स्वीकारा है कि ख्रीस्तीयता की जड़ें मध्यपूर्वी कलीसियाओं से ही जुड़ी हुई हैं।

14.चर्च की अन्य कलीसियाओं का मानना है कि चर्च का जन्म पेन्तेकोस्त के दिन हुआ जब पवित्र आत्मा प्रेरितों पर उतरा। यह इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ईश्वर ने मानव मुक्ति की योजना के लिये मध्यपूर्व एशिया के इस क्षेत्र को चुना। अगर हम इस तथ्य को बाइबल से जोड़ कर देखें तो हम कह सकते हैं जैसा कि उत्पति ग्रंथ के 12वें अध्याय में लिखा है कि ईश्वर ने अपनी प्रजा के नेताओं का मार्गदर्शन किया और मूसा नबी को उनका नेता बनाया ताकि वे मुक्ति कार्यों में ईश्वरीय प्रजा की अगवाई करें। फिर हम पाते हैं कि संत पौल ने भी गलातियों को लिखे अपने पत्र में कहते है कि ईश्वर ने अपनी प्रजा की अगवाई विभिन्न नबियों न्यायकर्त्ताओं राजाओं वीर महिलाओं के द्वारा किया और अन्त में अपने एकलौते पुत्र येसु मसीह को भेजा जिनके शरीरधारण के लिये उन्होंने एशिया को चुना।

15. श्रोताओ हम आपको यहबी बता दें कि चौथी शताब्दी तक केवल एक ही कलीसिया थी पर पाँचवी सदी में चर्च दो भागों में बँट गया। यह उस समय हुए जब कलीसिया के नेताओं की दो महासभा हुई सन् 431 की महासभा को एफेसस की महासभा और सन् 451 की महासभा काल्सेडोन की महासभा के नाम से जाना जाता है। इस समय चर्च में जो फूट हुई उससे दो कलीसियाओं का जन्म हुआ पहला अपोस्तोलिक अस्सीरियन चर्च ऑफ द ईस्ट अर्थात् पूर्व की प्रेरितिक अस्सीरियन कलीसिया और दूसरी ईस्टर्न ऑर्थोडोक्स चर्चेस अर्थात् कोपटिक सीरियन और अरमीनियन कलीसियायें जिन्हें ‘मोनोफिसाइट’ के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है ‘ऑफ वन नेचर’ अर्थात ‘एक स्वभाववाला’।

16. अब हम आपको यह भी बता दें कि चर्च में जो फूट पैदा हुई यह सिर्फ धर्म या धार्मिक बातों तक ही सीमित नहीं थी। कई बार यह पाया गया कि इस फूट ने लोगों को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी दो भागों में बाँट दिया। आज की तारीख में येसु की प्रकृति के बारे में सभी कलीसिया के नेताओं ने मिलकर एक राय बना ली है पर उन दिनों में येसु के प्रकृति को ही लेकर लोगों में मतांतर हो गये थे। आज संत पापा, पूर्वी ऑर्थोडोक्स कलीसिया के आचार्यों एवं पूर्वी कलीसिया के अपोस्तोलिक अस्सीरियन चर्च के आचार्यों ने मिलकर एक येसु की प्रकृति के संबंध में एक सामूहिक घोषणा की है।

17. अगर हम चर्च के इतिहास पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि 11वीं शताब्दी में एक बहुत बड़ा फूट हुआ जिसमें चर्च दो भागों में बँट गया। पहले भाग में कोन्सतनतिनोपल के रोम और पूर्व के ऑर्थोडोक्स कलीसिया के लोग एक-दूसरे से अलग हो गये। इस समय भी कलीसिया के बँटवारा में राजनीतिक और सांस्कृतिक कारण हावी रहे। पश्चिम और पूर्व के लोगों को एक-दूसरे को समझने में कठिनाई महसूस की।

18.इस प्रकार के विभाजनों के दूरगामी परिणाम हुए। आज भी मध्यपूर्वी कलीसियाओं में नामसमझी का प्रभाव देखा जा सकता है। इन सब विभाजनों के बावजूद इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि पवित्र आत्मा अपना कार्य जारी रखा है और दो पक्षों को एकता के सूत्र में बाँधने के प्रयास जारी हैं। पवित्र आत्मा के कार्यों का अनुभव इस बात से किया जा सकता है कि मतभेद होते हुए भी समय-समय पर अंतरकलीसियाई एकता के प्रयास होते रहे हैं। दोनों कलीसिया के सदस्यों ने प्रभु येसु के उन शब्दों से प्रेरणायें पायीं हैं जिसमें उन्होंने प्रार्थना रूप में इच्छा ज़ाहिर की थी कि लोग मतभेदों के बावजूद एक हो सकें जैसा ईश्वर और येसु एक हैं ताकि दुनिया विश्वास कर सके कि येसु ईश्वर द्वारा भेजे गये हैं।

19. अब हम उन बातों पर विचार करें जो विभिन्न कलीसियाओं को एकता के सूत्र में जोड़ने में मददगार सिद्ध हुई हैं। जो बातें कलीसिया को जोड़ने में सहायक हैं उसके संबंध में जो विचार प्राप्त हुए हैं उससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि चर्च का क्या कार्य है। सभी कलीसिया के लोग इस बात को मानते हैं कि चर्च की उत्पति इसलिये हुई ताकि वे सुसमाचार का प्रचार कर सकें। मध्यपूर्वी राष्ट्र इस बात को मानते हैं कि उनके देश में ख्रीस्तीयता का जन्म हुआ। वे इस बात को भी गंभीरता से समझते हैं कि अगर मध्यपूर्वी राष्ट्रों से ख्रीस्तीयता की जड़ समाप्त हुई तो ये विश्व की सार्वभौम कलीसिया के लिये एक भारी नुकसान है। इसलिये सभी कलीसिया के विश्वासी इस दायित्व को ठीक से समझते हैं कि ख्रीस्तीय विश्वास का उनके देशों में जीवित रहना अति मह्त्त्वपूर्ण है। दूसरी बात जिसके प्रति सभी सजग है कि न केवल उन्हें ख्रीस्तीयता को जीवित रखना है वरन् वे सुसमाचार की परंपरा और इसके संदेश को बरकरार रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे चाहते हैं कि ख्रीस्तीयता की उत्पति की पवित्रता की याद को बनाये रखना चाहते हैं।
कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के अंतर्गत आज हमने जानकारी प्राप्त की ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित ‘मध्यपूर्व की कलीसिया में हुए विभाजन के बारे में। अगले सप्ताह हम प्रस्तुत करेंगे अनेकता में एकता के बारे में।










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