कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य भाग
- 7 31 अगस्त, 2010 सिनॉद ऑफ बिशप्स - बाईबल पर आधारित चिन्तन
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हम
एक नया कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल
ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
’ कहा गया है। संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों
की एक विशेष सभा बुलायी है जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना जायेगा
। इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया जायेगा।
काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती
है। परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान,
तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब
एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम
अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई
और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम
स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं। वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय
के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित
और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया
है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन
24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और
दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन
सन् 1998 ईस्वी में हुआ था। पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक
कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है।
इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं
में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की
दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति
को प्रभावित करता रहा है। एक पखवारे तक चलने वाले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के पूर्व
हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठने वाले मुद्दों
और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़
एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक
दस्तावेज़ की प्रस्तावना के बारे में। आज हम सुनेंगे ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता
व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ में वर्णित बाईबल पर आधारित चिन्तन के बारे में। श्रोताओ,
धर्मग्रंथ के संबंध में जानकारियाँ मिली हैं वे इस बात की ओर इंगित करती हैं कि लोगों
में ईशवचन की भूख है। कई लोग तो बाईबल का अध्ययन किया करते हैं पर फिर यह महसूस किया
जा रहा है कि बाईबल का अध्ययन और अधिक गहराई से किया जाना चाहिये। कई लोगों ने इस बाईबल
की उपलब्धता संबंधी असुविधाओं के बारे में चर्चायें की हैं तो कुछ लोगों ने बताया कि
बाईबल के वचनों का सही अर्थ समझाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। इन दोनों बातों को
ध्यान में रखते हुए यही कहा जा सकता है कि आज इस बात की ज़रूरत है कि बाईबल के वचनों
के प्रचार के लिये उपलब्ध हर उपाय का सहारा लिया जाना चाहिये इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशन
किया ही जा सकता है इसका प्रकाशन इंटरनेट में भी किया जाना चाहिये ताकि यह लोगों के लिये
आसानी से उपलब्ध हो सके। यहाँ पर इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिये कि जिन्हें इस बात
का वरदान प्राप्त है कि वे रोज धर्मग्रंथ का पाठ करें वे ऐसा करना जारी रखें। प्रतिदिन
बाईबल पाठ के द्वारा वे सदा ही ईश्वर से जुड़े रह सकते हैं और इसके द्वारा वे ईश्वरीय
प्रेम का साक्ष्य दे सकते हैं और दूसरों के लिये प्रार्थनायें भी कर सकते हैं। बाईबल
का अध्ययन के बारे में एक बात बतायी जा सकती है वह यह है कि जैसा पुराने ज़माने में डेसर्ट
फादर्स और पूर्वी मोनास्टिक परंपरा के फादर्स बाईबल के पदों को याद किया करते थे ऐसा
आज भी किया जा सकता है। और उन्हीं बाईबल के शब्दों पर मनन-चिन्तन करना भी बहुत उपयोगी
हो सकता है। 9. पाठको, यहाँ इस बात को भी बता दें कि बाईबल में मानव का इतिहास है
जिसे कलीसिया मुक्ति का इतिहास कहती है। इसका अर्थ है कि बाईबल के जो दो खण्ड है जिन्हें
हम नया व्यवस्थान और पुराना व्यवस्थान के नाम से जानते हैं में गहरा संबंध है। ये दोनों
ही एक ही इतिहास के दो प्रमुख भाग हैं। सच पूछा जाये तो इन दो भागों को जो सूत्र एक में
जोड़ता है वे दुनिया के मुक्तिदाता ईसा मसीह। बाईबल के विद्वानों ने हमें बताया है कि
ईसा मसीह के द्वारा ही हम पुराने व्यवस्थान के अर्थ को ठीक से समझते हैं। इसलिय पुराने
व्यवस्थान का अध्ययन करते समय हमें इस तथ्य को हरदम मन में रखना चाहिये कि येसु मसीह
नये और पुराने व्यवस्थान को जोड़ते हैं। पाठको, आपलोगों का ध्यान इस ओर भी खींचना
चाहता हूँ कि पवित्र धर्मग्रंथ बाईबल ईसाई समुदाय की पवित्र किताब है और इसीलिये जो
ईसाई हैं वे इसके अर्थ को पूर्णतः समझ सकते हैं। ईसाई का विश्वास है कि ईश्वर ने बाईबल
को लिखने में लोगों की मदद की है और इसी को आधार बनाकर ही बाईबल के वचनों को समझने का
प्रयास किया जाना चाहिये। यहाँ इस बात को ध्यान दिया जाना चाहिये कि पवित्र धर्मग्रंथ
के शब्दों की व्याख्या एकपक्षीय तरीके से नहीं करना चाहिये। हम आपको यह भी जानकारी दे
दें कि मध्यपूर्वी राष्ट्रों में लोग इस बात को लेकर सचेत हैं कि अपनी कलीसिया की परंपरा
के आधार पर ही धर्मग्रंथ के वचनों की व्याख्या करें। सच तो यह है कि ईश वचन ही मानव
जीवन का मार्गनिर्देशन करता है और इसी से लोग अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाते हैं। कई
लोगों का जीवन बाईबल के वचनों से ही रूपांत्रित होता है। बाईबल के वचनों से ही व्यक्ति
को आशा मिलती है वह ईश्वर और पड़ोसियों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत कर पाता है। सच माना
जाये तो ईशवचन की व्याख्या ही ईशशास्त्र, आध्यात्मिकता और नैतिकता का श्रोत है। वैसे
कई बार मानव इस बात की भूल कर बैठता है और ऐसा समझ बैठता है कि धर्मग्रंथ ही अंतिम निर्देश
है जिसके आधार पर सभी समस्यों का समाधान किया जा सकता है पर ऐसा नहीं है। वास्तव
में, ईशवचन हमें दुनिया की समस्यों के अर्थपूर्ण समाधान के लिये हमारी मदद करता है। सही
अर्थ में ईशवचन हमारे मन को प्रकाशित और प्रेरित करते हैं ताकि हम सही निर्णय ले सकें।
यह यही ईशवचन है जो अंतरकलीसियाई और अंतरधार्मिक वार्ता में हमारी मदद कर सकते हैं। यह
यही ईशवचन है जो हमारे राजनीतिक क्रियाकलापों, बच्चों की उचित शिक्षा-दीक्षा और प्रेम
और क्षमा में हमारी मदद करता है। श्रोताओ, हम आपको यह भी बता दें कि पवित्र धर्मग्रंथ
न सिर्फ ख्रीस्तीयों के लिये महत्त्वपूर्ण है पर उनके लिये भी जो भले और सच्चे है और
ईश्वर की ख़ोज में लगे हुए हैं। पाठको, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के पिछले अंक
में हमने जानकारी प्राप्त की ‘मध्यपूर्व की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़
वर्णित बाईबल पर आधारित चिन्तन के बारे में। अगले सप्ताह हम जानेंगे ‘मध्यपूर्व की ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि के बारे में।