कलीसियाई दस्तावेज - एक अध्ययन मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य भाग
- 5 17 अगस्त, 2010 सिनॉद ऑफ बिशप्स - सिनॉद की प्रक्रिया
पाठको, ‘कलीसियाई दस्तावेज़ - एक अध्ययन’ कार्यक्रम की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए हम
एक नया कलीसियाई दस्तावेज़ प्रस्तुत करने जा रहे हैं जिसे ‘कैथोलिक चर्च इन द मिड्ल
ईस्टः कम्यूनियन एंड विटनेस’ अर्थात् ‘मध्यपूर्व में काथलिक कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य
’ कहा गया है। संत पापा बेनेदिक्त सोलहवें ने मध्य-पूर्वी देशों के धर्माध्यक्षों
की एक विशेष सभा बुलायी है जिसे ‘स्पेशल असेम्बली फॉर द मिडल ईस्ट’ के नाम से जाना जायेगा
। इस विशेष सभा का आयोजन इसी वर्ष 10 से 24 अक्टूबर, तक रोम में आयोजित किया जायेगा।
काथलिक कलीसिया इस प्रकार की विशेष असेम्बली को ‘सिनोद ऑफ बिशप्स’ के नाम से पुकारती
है। परंपरागत रूप से मध्य-पूर्वी क्षेत्र में जो देश आते हैं वे हैं - तुर्की, इरान,
तेहरान, कुवैत, मिश्र, जोर्डन, बहरिन, साउदी अरेबिया, ओमान, कतार, इराक, संयुक्त अरब
एमीरेत, एमेन, पश्चिम किनारा, इस्राएल, गाजा पट्टी, लेबानोन, सीरिया और साईप्रस। हम
अपने श्रोताओं को यह भी बता दें कि विश्व के कई प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, बाहाई
और यहूदी धर्म की शुरूआत मध्य पूर्वी देशों में भी हुई है। यह भी सत्य है कि अपने उद्गम
स्थल में ही ईसाई अल्पसंख्यक हो गये हैं। वैसे तो इस प्रकार की सभायें वाटिकन द्वितीय
के पूर्व भी आयोजित की जाती रही पर सन् 1965 के बाद इसका रूप पूर्ण रूप से व्यवस्थित
और स्थायी हो गया। वाटिकन द्वितीय के बाद संत पापा ने 23 विभिन्न सिनॉदों का आयोजन किया
है। मध्यपूर्वी देशों के लिये आयोजित धर्माध्यक्षों की सभा बिशपों की 24 महासभा है। इन
24 महासभाओं में 13 तो आभ सभा थे और 10 अन्य किसी विशेष क्षेत्र या महादेश के दशा और
दिशाओं की ओर केन्द्रित थे। एशियाई काथलिक धर्माध्यक्षों के लिये विशेष सभा का आयोजन
सन् 1998 ईस्वी में हुआ था। पिछले अनुभव बताते हैं कि महासभाओं के निर्णयों से काथलिक
कलीसिया की दिशा और गति में जो परिवर्तन आते रहे हैं उससे पूरा विश्व प्रभावित होता है।
इन सभाओं से काथलिक कलीसिया की कार्यों और प्राथमिकताओं पर व्यापक असर होता है। इन सभाओं
में काथलिक कलीसिया से जुड़े कई राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय गंभीर समस्याओं के समाधान की
दिशा में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं जो क्षेत्र की शांति और लोगों की प्रगति
को प्रभावित करता रहा है। एक पखवारे तक चलने वाले इस महत्त्वपूर्ण महासभा के पूर्व
हम चाहते हैं कि अपने प्रिय पाठकों को महासभा की तैयारियों, इस में उठने वाले मुद्दों
और कलीसिया के पक्ष और निर्देशों से आपको परिचित करा दें। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़
एक अध्ययन के पिछले अंक में हमने सुना ‘कोड ऑफ कैनन लॉ’ के आधार पर ‘सिनॉद ऑफ बिशप्स’
के लक्ष्य और अधिकारों के बारें में। आज हम सुनेंगे सिनॉद की प्रक्रिया के बारे में।
श्रोताओ हम आपको बता दें कि सिनॉद ऑफ बिशप्स अपने कार्यों का जिस तरह से संपादन
करती है उसे ‘कोलेजियालिटी’ यह सहशासन कहा जाता है। इस प्रक्रिया में इस महासभा के प्रत्येक
चरण, आरंभ से लेकर समापन तक सहशासन के सिद्धांत के आधार पर कार्य किया जाता है। इसके
सभी सदस्यों में शक्ति और निर्णय के अधिकार की वितरण समान रूप से होता है। इस सभा में
निर्णय लेने के लिये विश्लेषण और संश्लेषण का सहारा लिया जाता है। इसके साथ ही किसी भी
निर्णय तक पहुँचने के पूर्व संबंधित और आधिकारिक लोगों से इस के बारे में पूछ-ताछ की
जाती है। इतना ही नहीं जब किसी मुद्दे पर विचार किया जाता है तो इस बात पर ध्यान दिया
जाता है कि निष्कर्ष को लोगों को समक्ष प्रस्तुत करें ताकि उनसे प्रतिक्रयायें प्राप्त
हो सके।इस प्रकार की प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने से सभा को लगातार लोगों की प्रतिक्रियायें
मिलती है और इसके पारित होने के बाद ही नये प्रस्ताव लाये जाते हैं। इस महासभा की एक
बड़ी विशेषता होती है कि सभा के आरंभ से ही समापन तक सहशासन और आपसी सम्मान का वातावरण
बना रहता है। अगर हम सिनॉद ऑफ बिशप्स की तैयारी काल के बारे में विचार करें तो हम
पायेंगे कि आपसी सम्मान और सहशासन के सिद्धांत का आदर किया जाता है। जब महासभा के लिये
विषय का चुनाव होता है तब ही से इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि पैट्रियार्क धर्माध्यक्षीय
समितियाँ रोमन कूरिया के विभिन्न भागों के अध्यक्ष और सुपीरियर जेनरलों के संगठन की राय
ली जाये। धर्माध्यक्षों की महासभा के विषय के चुनाव करने के पूर्व चार बातों पर विशेष
रूप से ध्यान दिया जाता है। पहली तो यह कि महासभा की विषयवस्तु इतनी विस्तृत हो कि यह
पूरी कलीसिया के लिये लागू हो। दूसरी, विषयवस्तु समसामयिक हो और अति ज़रूरी हो। इसे हम
सकारात्मक तरीके से कह सकते हैं कि यह विषयवस्तु ऐसी हो जिस पर विचार-विमर्श करने से
कलीसिया अनुप्राणित हो सकती है कलीसिया का विकास हो सकता हो। तीसरी कि विषयवस्तु का चुनाव
करते समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाता है कि यह मेषपालीय तो हो ही इसका आधार कलीसिया
के सुदृढ़ सिद्धांतों पर हो। और चौथी कि विषयवस्तु के चुनाव के समय इस बात पर भी ध्यान
दिया जाता है कि जिन मुद्दों पर विचार किया जाना है उसके निर्णयों पर अमल किया जा सकता
है। विषयवस्तु के चयन के समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाता है कि एक सदस्य विषयवस्तु
प्रस्तावित करे तो उसकी ज़िम्मेदारी यह भी होती है कि वह उस विषयवस्तु को प्रस्तावित
करने के कारणों की भी जानकारी अवश्य दे। जब कौंसिल ऑफ जेनरल सेक्रेटेरियेट की सभा होती
है तब इसके सदस्य प्रस्तावित विषय वस्तु पर गहराई से विश्लेषण चिंतन और मंथन करते हैं।
इसके बाद यह सभा इसके निष्कर्ष को अपनी कुछ सिफारिशों के साध संत पापा को सौंप देती है। श्रोताओ,
इसके बाद यही कौंसिल एक रूपरेखा तैयार करती है और सिनॉद की प्रस्तावित विषयवस्तु को
एक दस्तावेज़ में प्रस्तुत करती है जिसे ‘लिन्यामेन्ता’ या ‘आउटलाइन’ या ‘रूपरेखा’ कहा
जाता है। इस दस्तावेज़ को अंतिम रूप देने में कई लोगों का सामूहिक योगदान होता है विशेष
कर ईशशास्त्री जिन्हें प्रस्तावित विषय के संबंध में जानकारी प्राप्त हो, और जेनेरल सेक्रेटेरियेट
के सदस्यों का जो इसके संयोजक होते हैं। विषयवस्तु को ध्यान से पढ़ने और इसकी विषय वस्तु
में आवश्यक सुधार लाने के बाद कौंसिल इसे अंतिम रूप देती है औऱ इस संत पापा की स्वीकृति
के लिये भेज दिया जाता है। संत पापा के अनुमोदन के बाद विभिन्न मुख्य भाषाओं में इसकी
प्रति बनायी जाती है। और तब इसकी प्रति को विभिन्न धर्मप्रांतों में भेजा दिया जाता है
ताकि इसका स्थानीय स्तर पर प्रार्थनापूर्ण अध्ययन हो सके। श्रोताओ, आइये हम आपको ‘लिनियामेन्ता’
का अर्थ समझा दें। लिन्यामेन्ता लैटिन शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘आउटलाइन’ अर्थात्
‘रूपरेखा’ जो बुहत ही विस्तृत होता है । इसे विस्तृत बनाने के पीछे मकसद होता है कि
इस संबंध में बड़े विस्तृत तौर से ही इस संबंध में प्रतिक्रियायें प्राप्त करना। नियमावली
के अनुसार लिनियामेन्ता की प्रतियाँ सिर्फ़ धर्माध्यक्षों को ही दी जाती है पर अपेक्षा
की जाती है कि वे इसके बारे में लोकधर्मियों से विचार-विमर्श करें। अपने धर्मप्रांतों
में महासभा की रूपरेखा और विषयवस्तु के बारे में स्थानीय स्तर पर विचार करने प्रतिक्रियायें
पाने और इसके निष्कर्ष की रिपोर्ट बनाने के बाद एक समय सीमा के भीतर इसे जेनेरल सेक्रेटेरियेट
में भेज दिया जाता है। जब सब ही संबंधित धर्मप्रांतों से रिपोर्ट कौंसिल ऑफ जेनेरल सेक्रेटेरियेट
पहुँच जाती है तब विशेषज्ञों की मदद से एक और रिपोर्ट तैयार किया जाता है जिसे ‘इन्सत्रुमेनतुम
लबोरिस’ ‘वर्किंग डॉक्यूमेन्ट’ या ‘कार्यकारी दस्तावेज़’ कहा जाता है। इसी के आधार
पर धर्माध्यक्षों की महासभा में विचार-विमर्श किये जाते हैं। इसे संत पापा को सौंपा जाता
है और इसकी प्रतियाँ विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध करा दी जाती है। और जब संत पापा इसका
अनुमोदन कर देते हैं तब इसकी प्रतियों को आम लोगों के वितरण के लिये दे दी जाती है। श्रोताओ,
हम आपको यह भी बता दें कि धर्माध्यक्षों की आम सभा के तीन चरण होते हैं। प्रथम चरण में
ज़िम्मेदार व्यक्ति उस विषयवस्तु के संबंध में कलीसिया की स्थिति के बारे में उपस्थित
सदस्यों को परिचित कराता है। दूसरे चरण में सभा के सदस्य भाषा के आधार पर कई छोटे दलों
में बँट जाते हैं और विचार-विमर्श करते हैं और एक रिपोर्ट देते हैं। यह वही समय है जब
सभा में उठ रहे सवालों का जवाब दिया जाता है और विचारों का आदान-प्रदान होता है और कई
संदेहों पर स्पष्टीकरण दिये जाते हैं। तीसरे और अंतिम चरण में भी छोटे दलों में कार्य
किये जाते हैं। ये छोटे दल विषय वस्तु के संबंध में अपने सलाहों अवलोकनों और टिप्पणियों
को स्पष्ट रूप से सामने लाते हैं ताकि अंत में इस पर मतदान किया जा सके। इन अवलोकनों
के आधार पर सिनॉद के सदस्य विभिन्न प्रस्ताव की रूपरेखा बनाते हैं फिर इन प्रस्तावों
पर छोटे दलों में विचार-विमर्श किये जाते हैं और संशोधन के प्रस्ताव भी लाये जाते हैं।
इसके बाद प्रस्तावित दस्तावेज़ को अंतिम रूप दिया जाता है और तब सिनॉद के सदस्य इस पर
अपना मतदान करते हैं। और जब यह समाप्त हो जाती है तब इसके अंतिम रिपोर्ट को संत पापा
के अनुमोदन के लिये भेज दिया जाता है। श्रोताओ, कलीसियाई दस्तावेज़ एक अध्ययन के
पिछले अंक में हमने सुना ‘सिनॉद की प्रक्रिया के बार में। अगले सप्ताह हम सुनेंगे ‘मध्यपूर्व
की कलीसियाः सहभागिता व साक्ष्य’ नामक दस्तावेज़ की प्रस्तावना के बारे में।