"सत्य में उदारता, जिसके साक्षी येसु बने, प्रत्येक व्यक्ति एवं सम्पूर्ण मानवजाति के
विकास की प्रमुख प्रेरक शक्ति है": काथलिक जगत एवं "सभी शुभचिन्तक मनुष्यों" को सम्बोधित
विश्व पत्र कारितास इन वेरितास इसी प्रकार आरम्भ होता है। इसकी प्रस्तावना में, सन्त
पापा स्मरण दिलाते हैं कि "उदारता ही कलीसिया की सामाजिक शिक्षा का मर्म है"। दूसरी ओर,
"इसे न समझने तथा नैतिक जीवन से इसके बहिष्कार के ख़तरे के नाते", इसके साथ सत्य को जोड़
दिया जाता है। वे ध्यान आकर्षित कराते हैं कि "उदारता सम्पन्न किन्तु सत्य रहित ख्रीस्तीय
धर्म को सरलतापूर्वक अच्छे ख्यालों का संग्रह मात्र समझा जा सकता है जो सामाजिक सहअस्तित्व
के लिये आवश्यक होते हुए भी सीमित ही होता है"। (1-4)
विकास को सत्य की आवश्यकता
है। सन्त पापा इस बात की पुष्टि करते हैं कि "सत्य के बिना सामाजिक कार्य व्यक्तिगत
स्वार्थ तथा सत्ता की तर्कणा के गर्त्त में गिर जाता जिसके समाज पर घोर दुष्परिणाम होते
हैं"। (5) सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें "नैतिक कृत्य के दो अनुकूल मापदण्डों" पर रुकते
हैं जो "सत्य में उदारता" सिद्धान्त से उत्पन्न होते हैं: न्याय ही जनकल्याण है। प्रत्येक
ख्रीस्तीय धर्मानुयायी सामाजिक जीवन पर अपना प्रभाव छोड़नेवाले "शिक्षा मार्ग" द्वारा
भी उदारता के लिये आमंत्रित है। (6-7) कलीसिया, इस तथ्य की पुनरावृत्ति करती है कि
"उसके पास तकनीकी समाधान नहीं हैं", किन्तु उसके पास मानव, उसकी प्रतिष्ठा तथा उसकी बुलाहट
के अनुकूल समाज के निर्माण" हेतु "पूरा करने के लिये एक मिशन है"। (8-9)
प्रथम
अध्याय सन्त पापा पौल षष्टम् के विश्व पत्र पोपुलोरुम प्रोग्रेसियो के सन्देश को समर्पित
है। सन्त पापा इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं कि "अनन्त जीवन की प्रत्याशा के
बिना इस विश्व में मानव का विकास श्वासहीन हो जाता है"। ईश्वर के बिना, विकास नहीं
के बराबर एवं अमानवीय हो जाता है। (10-12)
विश्व पत्र में हम पढ़ते हैं, सन्त
पापा पौल षष्टम् ने स्वतंत्रता और न्याय के अनुसार समाज के निर्माण के लिए सुसमाचार के
अपरिहार्य महत्व पर बल दिया। (13) हुमाने वीते विश्व पत्र में, सन्त पापा मोनतीनी "जीवन
की नैतिकता तथा सामाजिक नैतिकता के बीच विद्यमान घनिष्ट सम्बन्ध को इंगित करते हैं"।
आज भी, कलीसिया ज़ोर देकर इस घनिष्ट सम्बन्ध की प्रस्तावना करती है। (14-15) सन्त पापा,
पोपुलोरुम प्रोग्रेसियो में निहित, बुलाहट की संकल्पना को स्पष्ट करते हैं। "विकास एक
बुलाहट है क्योंकि वह एक पारलौकिक अपील का परिणाम है"। वे रेखांकित करते हैं, वास्तव
में विकास तब "अखण्ड" होता है जब वह "प्रत्येक मनुष्य एवं सम्पूर्ण मानव के विकास के
प्रति अभिमुख हो"। आगे लिखते हैं, "ख्रीस्तीय विश्वास, विशेषाधिकारों एवं सत्ताधारी पदों
की परवाह नहीं करता बल्कि केवल ख्रीस्त पर भरोसा रखकर, विकास के लिये कार्य करता है"।
(16-18) कलीसिया के परमाध्यक्ष इस बात को रेखांकित करते हैं कि "अल्पविकास के मूल कारण,
प्राथमिक तौर पर, भौतिक जीवन से जुड़े नहीं होते"। ये, लोगों की इच्छा, उनकी सोच और इससे
भी अधिक "मनुष्यों एवं लोगों के बीच भ्रातृत्व की अनुपस्थिति में निहित होते हैं"। वे
इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं कि "अधिकाधिक वैश्वीकृत समाज हमें एक दूसरे के
निकट अवश्य लाता है किन्तु हमें एक दूसरे के भाई बहन नहीं बनाता"। अस्तु उन प्रयासों
की ज़रूरत है जिनसे आर्थिक निकाय पूर्णतः मानव के प्रति अभिमुख रहें।
दूसरे अध्याय में, सन्त पापा हमारे युग में मानव विकास पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
वे इस बात का अवलोकन करते हैं कि "जनकल्याण की सोचे बिना केवल लाभ के उद्देश्य से काम
करना समृद्धि को नष्ट कर सकता तथा निर्धनता को उत्पन्न कर सकता है।" इस सन्दर्भ में विकास
के कुछेक विकारों को गिनाते हैं: "अन्दाज़ी आर्थिक गतिविधि", आप्रवासियों का प्रवाह "जो
प्रायः उकसाया जाता है" और फिर जिसका खराब प्रबन्ध किया जाता है, तथा "धरती के संसाधनों
का अनियमित शोषण"। आपस में जुड़ी हुई इन समस्याओं के समक्ष, सन्त पापा, "एक नये मानवतावादी
संश्लेषण का आह्वान करते हैं"। यह संकट "हमसे मांग करता है कि हम अपने यात्रा की पुनर्योजना
बनायें"। (21)
सन्त पापा कहते हैं कि आज विकास एक दूसरे पर लगी अनेक
स्तरों जैसा है। "विश्व निर्बाध ढंग से समृद्ध हो रहा है किन्तु असमानताएँ भी बढ़ती
जा रही है" तथा नये प्रकार की निर्धनताएँ उत्पन्न हो रही हैं। भ्रष्टाचार और उसके दुखद
परिणाम, धनी एवं निर्धन, दोनों देशों में विद्यमान हैं; कभी कभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ
श्रमिकों के अधिकारों का सम्मान नहीं करतीं। दूसरी ओर, "प्रायः अन्तरराष्ट्रीय सहायता,
दानदाताओं की ग़ैरज़िम्मेदारी के कारण उन लोगों तक नहीं पहुँच पाती जिन लोगों तक उन्हें
पहुँचना है"। सन्त पापा यह भी शिकायत करते हैं कि "ज्ञान उपलब्ध कराने के सन्दर्भ
में भी धनी राष्ट्रों द्वारा अति सुरक्षात्मक नीतियाँ अपनाई जाती हैं। उदाहरणार्थ,
विशेष रूप से, चिकित्सा के क्षेत्र में बौद्धिक सम्पत्ति के अधिकार का कठोर प्रयोग"।
(22)
इस बात का भी स्मरण कराया गया है कि "दीवारों" के खत्म हो जाने के बाद सन्त
पापा जॉन पौल द्वितीय ने विश्वव्यापी स्तर पर विकास के पुनरावलोकन का आग्रह किया था",
किन्तु यह "केवल आंशिक ही हुआ है"। आज "राज्य के सार्वजनिक अधिकारों" की भूमिका का "नये
सिरे से मूल्यांकन" हो रहा है, और यह आशा की जा रही है कि राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय
राजनीति में नागर समाज की भी भागीदारी रहे। फिर, सन्त पापा, धनी देशों द्वारा
लागू, कम लागत पर उत्पादन हासिल करने के लिये अस्थानीयकरण की नीति की ओर ध्यान आकर्षित
कराते हैं। वे सचेत करते हैं कि "इस प्रकार की प्रक्रियाओं ने, "श्रमिकों के अधिकारों
को ख़तरे में डालकर", सामाजिक सुरक्षा जाल को कमज़ोर कर दिया है"। इसके अतिरिक्त, इस
बात पर भी बल दिया गया कि "सामाजिक खर्चे में कटौती, जो अनेक बार अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय
संगठनों द्वारा समर्थित होती है, नागरिकों को पुराने एवं नवीन ख़तरों के समक्ष शक्तिहीन
बना सकती है"। दूसरी ओर, यह भी देखा गया है कि "सरकारें, आर्थिक लाभ के लिये, प्रायः
श्रम संगठनों की स्वतंत्रता को कुण्ठित करती हैं"। अस्तु, सन्त पापा सरकारों को याद दिलाते
हैं कि "पहली पूँजी जिसकी रक्षा की जाना तथा जिसके मूल्य को आँका जाना अनिवार्य है
वह है मानव तथा मानव व्यक्ति की अखण्डता"। (23-25)
आगे सन्त पापा कहते हैं
कि सांस्कृतिक स्तर पर, आपसी आदान प्रदान की सम्भावनाएँ वार्ता के नवीन परिप्रेक्ष्यों
के द्वार खोलती हैं किन्तु इसमें भी दुहरे ख़तरे निहित रहा करते हैं। सर्वप्रथम, सांस्कृतिक
ग्रहणशीलता का ख़तरा जिसमें "विभिन्न संस्कृतियों को तत्त्वतः एक समान मान लिया जाता
है"। इसके विपरीत जो ख़तरा बना रहता है वह है "सांस्कृतिक समतलीकरण", "जीवन यापन के तरीकों
का सादृश्यीकरण"। (26) तदोपरान्त सन्त पापा भुखमरी के कलंक को सम्बोधित करते हैं। सन्त
पापा के अनुसार उन "आर्थिक संस्थाओं के जाल" की कमी है जो इस आपात स्थिति से निपटने में
सक्षम हों। इस दिशा में, कृषि उत्पाद एवं विकासशील देशों में भूमि सुधार सम्बन्धी नवीन
तकनीकियों में "नवीन सम्भावनाओं" की आशा की जाती है। (27)
सन्त पापा बेनेडिक्ट
16 वें रेखांकित करते हैं कि जीवन के प्रति सम्मान को "किसी भी तरह से लोगों के विकास
से "अलग नहीं किया जा सकता"। विश्व के विभिन्न भागों में अभी भी जनसंख्या नियंत्रण के
नकारात्मक तरीके अपनाये जाते हैं जिनमें "गर्भपात तक के लिये लोगों को बाध्य किया जाता
है"। आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में, "जन्म विरोधी मानसिकता व्याप्त है अनेक बार इस
मानसिकता को अन्य देशों में ले जाने के प्रयास किये जाते हैं मानों यह सांस्कृतिक प्रगति
का एक प्रकार हो"। इसके साथ साथ, ऐसी भी आशंकाएँ हैं कि कभी कभी विकास सहायता को उन विशिष्ट
स्वास्थ्य नीतियों से जोड़ा जाता है जो "वास्तव में लोगों को संतति निग्रह के लिये बाधित
करती हैं।" "सुखमृत्यु की अनुमति देनेवाले कानून" भी चिन्ताजनक हैं। "जब कोई समाज जीवन
से इनकार अथवा जीवन के दमन हेतु अग्रसर होता है तब उसमें "मानव के यथार्थ कल्याण के लिये
कार्य करने की प्रेरणा एवं ऊर्जा ही समाप्त हो जाती है"। (28)
विकास से संलग्न
एक और पक्ष है धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार। हिंसा "यथार्थ विकास पर रोक लगा
देती है", और ऐसा, विशेष रूप से, "रूढिवाद द्वारा उकसाये गये आतंकवाद" के बारे में कहा
जा सकता है। साथ ही, अनेक देशों में नास्तिकता का प्रोत्साहन "लोगों को आध्यात्मिक एवं
मानव संसाधनों से वंचित कर उनके विकास में बाधाएँ उत्पन्न करता है"। (29) विकास के लिये,
आगे कहते हैं, उदारतापूर्वक सुव्यवस्थित ज्ञान के विभिन्न स्तरों पर आदान प्रदान की आवश्यकता
है। (30-31) ऐसी आशा की जाती है कि वर्तमान समय में चुने जा रहे आर्थिक विकल्प "सबके
लिये नौकरियाँ उपलब्ध कराने के लक्ष्य की ओर अग्रसर रहना जारी रहेंगे"। सन्त पापा
बेनेडिक्ट 16 वें लघुकालिक और कभी कभी अति लघुकालिक आर्थिक निकायों के प्रति सचेत करते
हैं जो "देश विशेष की अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धा को बढ़ाने के लिये श्रमिकों के अधिकारों
के स्तर को कम कर देते हैं"। इसके लिये वे विकास के उन प्रतिमानों के सुधार का आह्वान
करते हैं जो आज "धरती के पर्यावरणीय स्वास्थ्य" के लिये आवश्यक है। वैश्ववीकरण से समापन
करते हुए कहते हैं: "सत्य में उदारता से मार्गदर्शन लिये बिना, यह वैश्विक शक्ति अभूतपूर्व
क्षति पहुँचा सकती तथा नये विभाजन उत्पन्न कर सकती है"। अस्तु, एक "अकथित एवं रचनात्मक
समर्पण" आवश्यक है। (32-33)
विश्व पत्र के तीसरे अध्याय का विषय है भ्रातृत्व,
आर्थिक विकास एवं नागर समाज, जो वरदान की अनुभूति के स्तुतिगान से आरम्भ होता है,
तथा जिसे प्रायः, "पूरी तरह से उपभोक्तावादी एवं उपयोगितावादी जीवन प्रवृत्ति के कारण
मान्यता नहीं मिल पाती"। इस धारणा ने कि "अर्थ व्यवस्था नैतिक आचार व्यवहार के प्रभावों
से मुक्त है मनुष्य को विनाशक तौर पर आर्थिक प्रकिया के दुरुपयोग के लिये प्रश्रय दिया
है"। विकास को यदि "यथार्थ रूप से मानव के अनुकूल" होना है तो उसे "निःशुल्कता के सिद्धान्त
को अपने में सम्मिलित करना होगा"। (34) यह, विशेष रूप से, मार्केट के सन्दर्भ में प्रासंगिक
है।
"एकात्मता एवं आपसी विश्वास के आन्तरिक प्रकारों के बिना, मार्केट अपने कर्त्तव्यों
का भली प्रकार निर्वाह नहीं कर पायेगा"। "मार्केट स्वतः पर निर्भर नहीं रह सकता", उसे
"अन्य तत्वों से ऊर्जा ग्रहण करनी होगी" तथा निर्धनों को बोझ नहीं बल्कि एक संसाधन समझना
होगा"। मार्केट को वह स्थल नहीं बनना चाहिये जहाँ बलशाली दुर्बल को दबा सके। व्यवसायिक
तर्कणा को "जनकल्याण की ओर अभिमुख रहना चाहिये जिसके लिये राजनैतिक समुदाय को विशेष रूप
से उत्तरदायी होना चाहिये"। मार्केट अपने स्वभाव से नकारात्मक नहीं है। अस्तु, "मानव,
उसके नैतिक अन्तःकरण एवं उसकी ज़िम्मेदारी" के समक्ष प्रस्तुत यह एक चुनौती है। वर्तमानकालीन
संकट दर्शाता है कि सामाजिक आचार व्यवहार के "पारम्परिक सिद्धान्त जैसे पारदर्शिता, ईमानदारी
तथा ज़िम्मेदारी की अवहेलना नहीं की जा सकती"। साथ ही, सन्त पापा स्मरण दिलाते हैं कि
अर्थव्यवस्था सरकार की भूमिका को नहीं नकारती बल्कि उससे न्यायपूर्ण विधानों की मांग
करती है। चेन्तेसिमुस आन्नुस का स्मरण दिलाकर सन्त पापा, "तीन घटकों वाले निकाय की आवश्यकता
को इंगित करते हैं: मार्केट, राज्य एवं नागर समाज", तथा "अर्थव्यवस्था को परिशुद्ध" करने
के तरीकों का आह्वान करते हैं। हमें आवश्यकता है "एकात्मता पर आधारित आर्थिक निकायों
की"। मार्केट तथा राजनीति को ऐसे "व्यक्तियों की ज़रूरत है जो आपसी आदान प्रदान के लिये
तैयार हों"। (35-39)
इस बात की ओर वे ध्यान आकर्षित कराते हैं कि वर्तमान संकट
व्यावसाय में भी अभूतपूर्व परिवर्तन की मांग करता है। इसका प्रबन्ध केवल उद्योगपतियों
के हितों का ही ख्याल नहीं कर सकता अपितु उसे स्थानीय समुदाय का भी ख्याल रखना चाहिये।
सन्त पापा प्रबन्धकों का सन्दर्भ देते हैं जो प्रायः साझेदारों के संकेतों को ध्यान में
रखते हैं। इन्हें सन्त पापा आमंत्रित करते हैं कि वे वित्तीय संसाधनों पर अटकलबाज़ियों
से बचें। (40-41)
तीसरा अध्याय वैश्वीकरण के एक नये मूल्यांकन से समाप्त
होता है जिसे मात्र एक "सामाजिक आर्थिक प्रकिया" नहीं माना जाना चाहिये। "हमें किसी भी
निकाय के शिकार नहीं बल्कि, सत्य एवं उदारता से प्रेरित होकर तर्कणा के साथ आगे बढ़ते
हुए, उसके अभिनायक बनना चाहिये"। वैश्वीकरण को, पारलौकिक के प्रति उदार, सांस्कृतिक,
वैयक्तिक एवं सामुदायिक अभिमुखता की आवश्यकता है जो उसकी अस्त-व्यस्तताओं को सुधारने
में सक्षम हों। कहते हैं कि संसाधनों के पुनर्वितरण की सम्भावना है किन्तु स्वार्थगत
योजनाओं द्वारा कल्याण के प्रसार को कदापि रोका नहीं जाना चाहिये। (42)
चौथे
अध्याय में, विश्व पत्र, लोगों के विकास, अधिकार एवं दायित्व, तथा पर्यावरण पर ध्यान
केन्द्रित करता है। समृद्ध समाजों में "अति के अधिकार पर दावों" को देखा जा सकता है जबकि
कुछेक अविकसित क्षेत्रों में खाद्य एवं जल की नितान्त कमी बनी हुई है। "दायित्वों से
रहित व्यक्तिगत अधिकार दीवानगी की हद तक पहुँच सकते हैं"। अधिकार एवं दायित्व एक नैतिक
सन्दर्भ से जुड़े होते हैं। यदि "इनका आधार केवल नागरिकों की एक सभा के विचार विमर्श
की उपज हों" तो इन्हें "किसी भी क्षण बदला जा सकता है"। सरकारों एवं अन्तराष्ट्रीय संगठनों
को "अधिकारों की वस्तुनिष्ठता एवं अहरणीयता" को कभी नहीं भुलाना चाहिये। (43) इस सन्दर्भ
में, हम "जनसंख्या वृद्धि की समस्या" पर चिन्तन कर सकते हैं। "जनसंख्या वृद्धि को अविकास
का मुख्य कारण मान लेना भारी भूल है"। सन्त पापा इस बात पर बल देते हैं कि यौनाचार को
केवल "भोगविलास अथवा मनोरंजन तक सीमित नहीं किया जा सकता"। न ही "संतति निग्रह के लिये
आदेशित योजनाओं" द्वारा यौनाचार को नियमाधीन किया जा सकता है। तदोपरान्त, वे इस तथ्य
को रेखांकित करते हैं कि "जीवन के प्रति नैतिक रूप से ज़िम्मेदार उदारता समृद्ध सामाजिक
एवं आर्थिक संसाधन का प्रतिनिधित्व करती है"। "राज्यों का आह्वान किया जाता है कि वे
परिवार की केन्द्रीयता एवं अखण्डता को प्रोत्साहन देनेवाली नीतियाँ बनायें"। (44)
सन्त
पापा कहते हैं, "अर्थव्यवस्था के सही संचालन के लिये किसी भी नीतिशास्त्र की नहीं
बल्कि लोगों पर केन्द्रित नीति शास्त्र की आवश्यकता है"। मानव व्यक्ति की इसी केन्द्रीयता
को अन्तरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा संचालित "विकास कार्यक्रमों" के पथदर्शक सिद्धान्त
होना चाहिये, जिनमें लोगों भागीदारी सदैव होनी चाहिये। "अन्तरराष्ट्रीय संगठन अपने आप
की दफ्तरशाही की प्रभावात्मकता पर प्रश्न कर सकते हैं, जो प्रायः "बहुत क़ीमती" होती
है। सन्त पापा इस बात की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं कि बहुत बार "निर्धन लोग क़ीमती
दफ्तरशाहियों की सेवा में लगाये जाते हैं"। इस सन्दर्भ में सन्त पापा मिलनेवाले अनुदानों
के बारे में "पूर्ण पारदर्शिता" का आह्वान करते हैं। (45-47)
इस अध्याय का अन्तिम
पेरा पर्यावरण को समर्पित हैं। विश्वासियों के लिये, प्रकृति, ईश्वर द्वारा प्रदत्त
वरदान है, जिसका उपयोग ज़िम्मेदारीपूर्वक किया जाना चाहिये। इस सन्दर्भ में हमारा ध्यान
ऊर्जा की समस्या पर आकर्षित किया जाता है। कुछेक देश एवं पावर दलों द्वारा "नये
न होनेवाले ऊर्जा संसाधनों का भण्डारन, निर्धन देशों के विकास में गम्भीर बाधाएँ उत्पन्न
करता है"। अस्तु, "अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को नये न होनेवाले ऊर्जा संसाधनों के शोषण को
रोकने के लिये संस्थागत ढंग से नियमों को लागू करना चाहिये"। "तकनीकी रूप से विकसित
समाजों को घरेलु ऊर्जा उपभोग कम करना चाहिये", साथ ही साथ, ऊर्जा के वैकल्पिक प्रकारों
की खोज को प्रोत्साहन देना चाहिये"। आधारभूत रूप से,
"मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता है जो जीवन यापन की नवीन शैलियों को अपनाने में सक्षम
हों"। आज विश्व के बहुत से देशों में जीवन यापन की शैली "सुखवाद एवं उपभोक्तावाद के प्रति
झुकी हुई है"। अस्तु, निर्णायक समस्या "समाज के समग्र नैतिक जीवन प्रवाह की है"। सन्त
पापा सचेत करते हैं: "यदि जीवन एवं प्राकृतिक मृत्यु के प्रति सम्मान का अभाव है", तो
"समाज का अन्तःकरण मानव पारिस्थितिकी और साथ ही पर्यावरणीय पारिस्थितिकी की संकल्पना
को ही खो बैठेगा"। (48-52)
मानव परिवार का सहयोग पाँचवे अध्याय का प्राण है जिसमें
बेनेडिक्ट 16 वें दर्शाते हैं कि "लोगों का विकास विशेष रूप से इस तथ्य को मान्यता देने
पर निर्भर करता है कि मानवजाति एक ही परिवार है"। दूसरी ओर, हम पढ़ते हैं कि ख्रीस्तीय
धर्म विकास में योगदान दे सकता है केवल तब जब "सार्वजनिक जीवन में ईश्वर को स्थान दिया
जाये"। "लोगों को सार्वजनिक रूप से अपने धर्म पालन के अधिकार से वंचित रखने के द्वारा
राजनीति निरंकुश एवं आक्रामक प्रकृति का वरण कर लेती है"। सन्त पापा सचेत करते हैं, "धर्म
के प्रति उदासीनता एवं रूढ़ीवाद, विश्वास एवं तर्कणा के बीच, फलप्रद वार्ताओं की सम्भावना
का बहिष्कार कर देते हैं"। यह एक ऐसी विकृति है जिसके "मानवजाति के विकास पर घोर परिणाम
होते हैं"। (53-56)
तदोपरान्त सन्त पापा सहायता के सिद्धान्त की व्याख्या करते
हैं जो "मध्स्थतों द्वारा व्यक्ति की मदद करता है"। सन्त पापा कहते हैं, "सहायता सभी
प्रकार की पितृसत्तावादी सहायतावादात्मकता के विरुद्ध सबसे प्रभावी दवा है" तथा वैश्वीकरण
को मानवीय बनाने के प्रति अभिमुख रहती है। कभी कभी, "अन्तरराष्ट्रीय सहायता लोगों को
निर्भरता के दायरे में बन्द करके रख देती है" इसलिये, केवल शासकों को ही नहीं बल्कि नागर
समाज के सभी लोगों को इससे संलग्न होना चाहिये। "अनेक बार, सहायताओं का उपयोग, विकासशील
देशों के लिये, केवल उत्पादों के लिये सीमांत मार्केटों के निर्माण तक ही सीमित रहा है"।
(57-58) सन्त पापा आर्थिक रूप से विकसित राष्ट्रों का आह्वान करते हैं कि वे "अपने सकल
घरेलु उत्पाद का बड़ा हिस्सा विकास सहायता में लगायें तथा की गई प्रतिज्ञाओं को पूरा
करें"। तदोपरान्त वे शिक्षा की और अधिक उपलभ्यता का परामर्श देते हैं तथा "मानव व्यक्ति
के अखण्ड विकास" पर बल देते हैं क्योंकि सापेक्षवाद सभी को निर्धन बना देता है। यौन पर्यटन
की अनिष्टकर वास्तविकता का उदाहरण दिया गया है। "शोकवश यह देखा जाता है कि यह गतिविधि
स्थानीय सरकारों के समर्थन से चला करती हैं, जिसमें पर्यटकों के मूल देशों का मौन तथा
पर्यटन एजेन्सियों की साझेदारी मिली होती है"। (59-61)
इसके बाद सन्त पापा आप्रवास
पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो वर्तमान काल में एक युगप्रवर्तक घटक बन गया है। "किसी
भी देश से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस समस्या को अकेले सुलझाये"। प्रत्येक
आप्रवासी एक "मानव व्यक्ति" है जिसके कुछ मूलभूत एवं अहरणीय अधिकार हैं तथा जिनका सभी
के द्वारा एवं सभी परिस्थितियों में सम्मान अनिवार्य है"। यह आग्रह कर कि विदेशी
श्रमिकों को व्यापार की चीज़ न समझा जाये सन्त पापा कहते हैं कि निर्धनता एवं बेरोज़गारी
के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। वे सबके लिये सन्तोषजनक रोज़गार की अपील करते तथा राजनीतिज्ञों
से अलग श्रम संगठनों के अधिकारियों को आमंत्रित करते हैं कि वे उन देशों के श्रमिकों
पर ध्यान केन्द्रित करें जहाँ सामाजिक अधिकारों का अतिक्रमण होता है। (62-64)
वित्त
व्यवस्था, "जिसके दुरुपयोग ने यथार्थ अर्थ व्यवस्था पर इतने कठोर प्रहार किये हैं,
को पुनः विकास की ओर अभिमुख अस्त्र बनने की आवश्यकता है"। "वित्तदाताओं को
अपनी गतिविधियों के यथार्थ नैतिक आधार की पुनर्खोज करना अनिवार्य है"। इसके अतिरिक्त,
सन्त पापा, कमज़ोर पक्षों की मदद के लिये "वित्तीय क्षेत्र के नियमन" का आह्वान करते
हैं। (65-66)
विश्व पत्र का अन्तिम अध्याय, सभी के द्वारा महसूस कि गये,
"संयुक्त राष्ट्र संघ तथा आर्थिक संस्थाओं एवं अन्तरराष्ट्रीय वित्त व्यवस्था के सुधार
के बारे में है"। एक "यथार्थ विश्वव्यापी राजनैतिक अधिकार तंत्र की नितान्त आवश्यकता
है", जो "सहायता एवं एकात्मता के सिद्धान्तों का निरन्तर अवलोकन करे, ऐसा अधिकार तंत्र
जिसके पास कारगर क्षमता हो"। अन्त में सन्त पापा "वैश्वीकरण के सुचारु संचालन के लिये
अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था को बेहतर बनाने का आह्वान करते हैं"। (67)
छठवाँ एवं
अन्तिम अध्याय लोगों के विकास एवं तकनीकी विषय पर संकेन्द्रित है। सन्त पापा उस "धृष्ट
प्रकल्पना" के प्रति सावधान करते हैं जिसके अनुसार मनुष्य यह सोच बैठता है कि "तकनीकी
के चमत्कारों द्वारा मानवजाति स्वतः को पुनर्सृजित कर सकती है"। कहते हैं कि तकनीकी को
"निरंकुश स्वतंत्रता" नहीं दी जा सकती। फिर बताते हैं कि "वैश्वीकरण की प्रकिया किस प्रकार
तकनीकी के द्वारा विचारधाराओं का स्थान ले सकती है"। (68-72) सामाजिक सम्प्रेषण माध्यम
तकनीकी विकास के साथ जुड़े हैं जिनसे "व्यक्ति एवं लोगों की प्रतिष्ठा" को प्रोत्साहित
करने की मांग की जाती है। (73)
"तकनीकी आधिपत्य एवं मानव की नैतिक ज़िम्मेदारी
के बीच आज विद्यमान सांस्कृतिक संघर्ष में जैव-नैतिकी का क्षेत्र" एक निर्णायक रंगमंच
बना हुआ है"। सन्त पापा कहते हैं: "विश्वास रहित तर्कणा का अपने आप के सर्वशक्तिमत्ता
रूपी मायाजाल में फँसना निश्चित्त है"। इस प्रकार सामाजिक प्रश्न "मानवशास्त्र सम्बन्धी
प्रश्न" बन जाता है। आज की संस्कृति भ्रूण पर एवं क्लोनिंग पर अनुसन्धान को, इस भ्रम
में पड़ कर, प्रोत्साहित कर रही है कि उसने "हर रहस्य पर स्वामित्व हासिल कर लिया है"।
सन्त पापा "जन्म सम्बन्धी एक क्रमबद्ध सुजननिक योजना" की आशंका व्यक्त करते हैं। (74-75)
वे कहते हैं, "विकास में केवल भौतिक विकास का ही नहीं अपितु आध्यात्मिक विकास का भी ध्यान
रखा जाना चाहिये"। अन्त में, मानव घटनाओं के भौतिकतावादी एवं सांसारिक दृष्टिकोण से
ऊपर उठने के लिये, सन्त पापा, हमसे एक "नवीन हृदय" का आह्वान करते हैं। (76-77)
विश्व
पत्र के उपसंहार में, सन्त पापा इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि विकास को उन "ख्रीस्तीयों
की आवश्यकता है जिनकी बाँहें ईश्वर की ओर प्रार्थना में ऊपर उठी हैं, उसे, "प्रेम एवं
क्षमा, आत्मत्याग, अन्यों की स्वीकृति, न्याय एवं शांति" की आवश्यकता है। (78-79)