2008-08-04 12:41:18

देवदूत प्रार्थना से पूर्व दिया गया सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें का सन्देश


श्रोताओ, इटली के आल्तो आजिदे प्रान्त के पर्वतीय नगर ब्रेसानोन में अपना ग्रीष्म अवकाश व्यतीत कर रहे सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने, रविवार तीन अगस्त को, ब्रेसानोन के काथलिक महागिरजाघर के प्राँगण में एकत्र तीर्थयात्रियों को दर्शन दिये तथा उनके साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया। इससे पूर्व अपने सम्बोधन में सन्त पापा ने कहाः

“अति प्रिय भाइयो एवं बहनो,
आप सबका हार्दिक स्वागत। सर्वप्रथम, धर्माध्यक्ष एगर महेदय, मैं आपके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूँ क्योंकि आपने ही विश्वास के इस महोत्सव को सम्भव बनाया, आप ही के कारण यह सम्भव बन पडा कि मैं अपने अतीत में लौट सकूँ तथा अपने भविष्य के पथ पर आगे बढ़ सकूँ। एक बार फिर मैं ब्रेसानोन की रमणीय वादियों में अपना ग्रीष्म अवकाश व्यतीत कर सका। इस धरती पर जहाँ हमारा साक्षात्कार कला, संस्कृति तथा लोगों की परोपकारिता के अद्भुत मिलन से हो जाता है। इस सब के लिये आपको कोटिशः धन्यवाद। ...............................

उन सब के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने यहाँ मेरे पड़ाव को शांतिमय एवं सुखद बनाने में योगदान दिया। उनके प्रति भी धन्यवाद जिन्होंने आज के उत्सव का आयोजन किया। हृदय की अतल गहराईयों से मैं नगर, प्रान्त तथा राज्य के सभी प्रशासनाधिकारियों का शुक्रिया अदा करता हूँ, प्रबन्धकों, कानून एवं व्यवस्था को बनाये रखनेवालों, चिकित्सकों तथा स्वयंसेवको के प्रति भी मैं आभारी हूँ। इनके अतिरिक्त, उन सब के प्रति भी आभारी हूँ जिन्हें सम्भवतः मैं भूल गया हूँ। आप सब मेरी प्रार्थनाओं में याद किये जायेंगे। मेरे लिये प्रार्थना ही धन्यवाद ज्ञापन का सबसे उत्तम तरीका है। और फिर यह स्वाभाविक एवं अनिवार्य है कि हम इस रमणीय धरती के लिये ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करें। उन ईश्वर के प्रति जिन्होंने हमें सूर्य के प्रकाश से प्रजवलित इस रविवार का वरदान दिया।

सन्त पापा ने आगे कहाः......"इसके साथ ही हमारा ध्यान इस दिन के धर्मग्रन्थ पाठों पर अभिमुख होता है। प्रथम पाठ हमें इस तथ्य का स्मरण दिलाता है कि जीवन की महान चीज़ों को न तो यूँ ही हासिल किया जा सकता है और न ही खरीदा जा सकता है क्योंकि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक चीज़ें हमें केवल दान में ही मिल सकती हैं, जैसे सूर्य एवं उसका प्रकाश, वायु जिससे हम साँस लेते हैं, जल, पृथ्वी का सौन्दर्य, प्रेम, मैत्री और स्वयं जीवन। ये हमारी केन्द्रीय सम्पत्ति है जिसे खरीदा नहीं जा सकता बल्कि जो हमें वरदान स्वरूप मिलती हैं। दूसरा पाठ इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कराता है कि जीवन में ऐसी भी चीज़ें होती हैं जिन्हें कोई हम से छीन नहीं सकता, ऐसी चीज़ें जो न तो किसी प्रकार की तानाशाही अथवा न ही किसी प्रकार की विनाशक शक्ति नष्ट कर सकती है। ये चीज़ें हैं ईश्वर के प्रेम पात्र बनना, उन ईश्वर के जो ख्रीस्त में हमें जानते हैं तथा हममें से प्रत्येक से प्यार करते हैं। ये चीज़ें कोई हमसे छीन नहीं सकता तथा जब तक ये हमारे पास हैं तब तक हम निर्धन नहीं अपितु धनवान हैं। इसके बाद सुसमाचार हमें एक कदम और आगे ले जाता है और वह यह कि यदि हम ईश्वर से इतने बड़े वरदान प्राप्त करते हैं तो हमें भी अन्यों में इन वरदानों को बाँटना चाहिये। आध्यात्मिक दायरे में हमें भलाई, मैत्री तथा प्रेम के वरदानों को अन्यों में बाँटना चाहिये और साथ ही भौतिक रूप से भी अन्यों की मदद करनी चाहियेः सुसमाचार में रोटी को विभाजित करने की बात कही गई है। ये दो बातें आज हमारे ज़हन में प्रवेश कर जाना चाहिये कि हमें अन्यों को देना चाहिये क्योंकि जो कुछ हमारे पास है वह हमें दान में ही मिला है। भलाई, प्रेम तथा मैत्री को देने के साथ साथ हमें भौतिक चीज़ों से भी सभी ज़रूरतमन्दों की मदद करनी चाहिये ताकि हम धरती को और अधिक मानवीय बना सकें अर्थात् ईश्वर के निकट ले जा सके।"

तदोपरान्त सन्त पापा ने कहाः ............"अब, प्रिय मित्रो, आप सबको मैं आमंत्रित करता हूँ कि आप मेरे साथ मिलकर प्रभु सेवक सन्त पापा पौल षष्टम् को याद करें, जिनके निधन की, तीन दिन बाद, छः अगस्त को 30 वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है। वस्तुतः वह सन् 1978 को छः अगस्त की सन्ध्या ही थी जब पौल षष्टम् ने प्रभु को अपने प्राण न्यौछावर किये थे; येसु के रूपान्तरण की सन्ध्या, दैवीय प्रकाश का रहस्य जिससे वे सदैव ओत् प्रोत् रहा करते थे। कलीसिया के परम मेषपाल रूप में पौल षष्टम् ने मानव मुक्तिदाता एवं इतिहास के स्वामी प्रभु ख्रीस्त के मुखमण्डल पर चिन्तन हेतु ईश प्रजा को मार्गदर्शन दिया। प्रभु ख्रीस्त के प्रति उनकी प्रेमपूर्ण अभिमुक्ति ही द्वितीय वाटिकन महासभा का केन्द्रबिन्दु बनी। सन्त पापा पौल षष्टम् का यह ऐसा व्यवहार था जिसे मेरे पूर्वाधिकारी स्व. सन्त पापा जॉन पौल द्वितीय ने हिरासत में पाया तथा सन् दो हज़ार की महान जयन्ती के अवसर पर पुनर्प्रस्तावित किया। वस्तुतः, सबकुछ का केन्द्र हैं येसु ख्रीस्तः वे धर्मग्रन्थ के तथा परम्परा के केन्द्र हैं, वे कलीसिया एवं विश्व तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के केन्द्र हैं। ईश्वर ने, मिलान एवं रोम की धर्मपीठों से, जोवान्नी बतिस्ता मोनतीनी को महासभा के उस संवेदनशील क्षण में बुलाया जब धन्य जॉन 23 वें की अन्तरदृष्टि संरचित न होने के ख़तरे में पड़ी थी। उनके फलप्रद् एवं साहसिक प्रेरितिक कार्यों के लिये हम कैसे ईश्वर को धन्यवाद न दें? जैसे जैसे अतीत के प्रति हमारी दृष्टि विस्तृत एवं और अधिक पूर्ण होती चली जाती है वैसे वैसे, महासभा का अध्यक्षता, उसके सफलतापूर्वक समापन तथा महासभा के बाद घटनाओं से भरे समय के प्रबन्धन में, सन्त पापा पौल षष्टम् के कार्य और भी महान एवं परम मानवीय प्रतीत होते हैं। सन्त पौल के साथ मिलकर हम सचमुच में यह कह सकते हैं कि उनमें ईश्वर की कृपा व्यर्थ नहीं हुईः उसने उनकी प्रखर बुद्धि के उत्कृष्ट वरदानों तथा कलीसिया एवं मानव के प्रति उनके प्रेम का अच्छा उपयोग किया। इस महान सन्त पापा के लिये ईश्वर को धन्यवाद देते हुए हम उनकी शिक्षाओं को संजोये रखने का प्रयत्न करें।"

अन्त में सन्त पापा ने कहाः............ "महासभा के अन्तिम चरण में, सन्त पापा पौल षष्टम् ने ईश्वर की माता के प्रति विशेष श्रद्धा अर्पित करनी चाही तथा उन्हें "कलीसिया की माता" का शीर्षक प्रदान करने की भव्य घोषणा की। अब देवदूत प्रार्थना के द्वारा हम, ख्रीस्त की माता, कलीसिया की माता तथा हम सब की माता को पुकारें। ....................

इस अनुरोध के बाद सन्त पापा बेनेडिक्ट 16 वें ने उपस्थित तीर्थयात्रियों के साथ देवदूत प्रार्थना का पाठ किया तथा सब पर प्रभु की शांति का आह्वान कर सबको अपना प्रेरितिक आर्शीवाद प्रदान किया ------------------------------------------------------------











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